________________
प्रमाण-नयविचारः
कालस्यैक-प्रदेशत्वात् कायत्वं नास्ति तत्त्वतः । लोकासंख्यप्रदेशेषु तस्यैकैकस्य संस्थितिः॥
काल के एकप्रदेशी होने के कारण वस्तुतः कायपना नहीं है। उसका एक-एक प्रदेश लोक के प्रसंख्यात प्रदेशों पर स्थित है।
विवेचन-उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य स्वरूप अस्तित्व (सत्) से संयुक्त होने के कारण छहों द्रव्यों को अस्ति कहा जाता है । जो काय (शरीर) के समान बहुत प्रदेशों से संयुक्त हैं वे काय कहलाते हैं। काल चूंकि एक प्रदेश वाला है, इसलिए उसे अस्ति तो कहा जाता है, पर काय नहीं कहा जाता। किन्तु शेष द्रव्य बहुतप्रदेशी हैं, इसलिए उन्हें अस्ति के साथ काय भी (अस्तिकाय) कहा जाता है। यहां यह शंका हो सकती है कि पुदगल के अन्तर्गत परमाण भी तो एकप्रदेशी हैं, फिर उन्हें काय कैसे कहा जाता है। इसके समाधान में यह कहा जा सकता है कि परमाणु यथार्थतः तो काय नहीं है, किन्तु वे स्कन्धों में मिलकर बहुतप्रदेशी होने की योग्यता रखते हैं, अतः उन्हें उपचार से प्रस्तिकाय समझना चाहिए। काल में चुंकि बहुतप्रवेशी होने की योग्यता नहीं है, इसलिए उसे उपचार से भी काय नहीं कहा जा सकता है। यही कारण है जो श्लोक में 'तत्त्वतः' पद को ग्रहण किया गया है ॥६६॥
प्रागे उक्त बहुतप्रदेशी द्रव्यों में किसके कितने प्रदेश हैं, इसका निर्देश किया जाता हैधर्माधर्मकजीवानां संख्यातीतप्रदेशता । व्योम्नोऽनन्तप्रदेशत्वं पुद्गलानां त्रिधा तथा ॥६७
धर्म, अधर्म और प्रत्येक जीव ये असंख्यात प्रदेशों से युक्त हैं। आकाश अनन्त प्रदेशों से युक्त हैं। पुद्गलों के प्रदेश तीन प्रकार हैं-संख्यात, असंख्यात और अनन्त । परमाणु और द्वयणुक प्रादि उत्कृष्ट संख्यात तक प्रदेशों वाले स्कन्धों में संख्यात प्रदेश रहते हैं, संख्यात से आगे एक अधिक प्रदेश से लेकर अनन्त से पूर्व उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात से युक्त प्रदेशों वाले स्कन्धों में असंख्यात प्रदेश रहते हैं, इसके मागे महास्कन्ध तक सब पुद्गलस्कन्धों में अनन्त प्रदेश रहते हैं। जितने प्राकाश को एक परमाणु रोकता है उतने क्षेत्रप्रमाण का नाम प्रदेश है ॥६७॥
पीछे श्लोक ३६ में पदार्थपरिज्ञान के साधनभत प्रमाण का निर्देश किया गया है, उसके स्वरूप व भेदों को यहां दिखलाते हैंप्रमाणं वस्तुविज्ञानं तन्मोहादिविजितम् । परोक्षेतरभेदाभ्यां द्वेधा मत्यादिपञ्चकम् ॥६८
मोह प्रादि-- संशय, विपर्यय व अनध्यवसाय-से रहित वस्तु के विशिष्ट (यथार्थ) ज्ञान को प्रमाण कहते हैं । वह प्रत्यक्ष व परोक्ष के भेद से दो प्रकार का है। उनमें मति व श्रुत ये वो ज्ञान परोक्ष तथा अवधि, मनःपर्यय और केवल ये तीन ज्ञान प्रत्यक्ष हैं। इस प्रकार इन पांच ज्ञानों को प्रमाण माना गया है।
विवेचन-प्रविशद या प्रस्पष्ट ज्ञान को परोक्ष कहते हैं। वह दो प्रकार का है-मति और श्रुत । जो ज्ञान इन्द्रिय व मन की सहायता से उत्पन्न होता है वह मतिज्ञान कहलाता है। इस मतिज्ञान के निमित्त से जो विवेचनात्मक ज्ञान होता है उसे श्रुतज्ञान कहा जाता है, जो बारह मंगस्वरूप है। प्रत्यक्ष के तीन भेद हैं-अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को मर्यादा लिए हुए जो इन्द्रिय की सहायता से रहित ज्ञान होता है उसका नाम अवविज्ञान है । इन्द्रिय व मन को सहायता से रहित जो दूसरे के मन में स्थित चिन्तित व अचिन्तित पदार्थ को जानता है उसे मन:पर्ययज्ञान कहते हैं। जो त्रिकालवर्ती समस्त द्रव्यों व उनकी पर्यायों को युगपत् जानता है उस प्रतीन्द्रिय ज्ञान का नाम केवलज्ञान है। वह इन्द्रिय प्रादि किसी अन्य की सहायता नहीं लेता है, इसीलिए उसकी 'केवल' यह सार्थक संज्ञा है । इसी कारण उसे असहाय ज्ञान भी कहा जाता है ॥६॥
प्रागे चार श्लोकों में नय के स्वरूप और उसके भेदों का निर्देश किया जाता हैनयो ज्ञातुरभिप्रायो द्रव्यपर्यायगोचरः । निश्चयो व्यवहारश्च द्वेधा सोऽहंस्तवागमे ॥६६