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नवपदार्थप्ररूपणा ज्ञानों में इन तीन मिथ्याज्ञानों के मिला देने पर ज्ञान के सामान्य से पाठ भेद हो जाते हैं ॥४४.४५॥
अब दो श्लोकों में दर्शन के स्वरूप और उसके भेदों का निर्देश किया जाता हैवस्तुसत्तावलोको यः सामान्येनोपजायते। दर्शनं तन्मतं देव बहिरन्यच्चतुर्विधम् ॥४६ चक्षुरालम्बनं तच्च शेषाक्षालम्बनं तथा। अवध्यालम्बनं पुंसो जायते केवलाश्रयम् ॥४७
हे देव ! सामान्य से जो वस्तु की सत्ता मात्र का अवलोकन होता है उसे दर्शन माना गया है। वह चार प्रकार का है-चक्षुदर्शन, प्रचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलवर्शन । जो वर्शन-सत्ता मात्र का अवलोकन-जीव के चक्षु इन्द्रिय से प्राश्रय से होता है उसे चक्षुदर्शन, चक्षु को छोड़ शेष इन्द्रियों के प्राश्रय से होने वाले दर्शन को प्रचक्षुदर्शन, अवधिज्ञान के प्रालम्बन से होने वाले दर्शन को अवधिदर्शन मौर केवलज्ञान के प्राश्रय से होने वाले दर्शन को केवलदर्शन कहा जाता है ॥४६-४७॥
प्रागे वह दर्शन ज्ञान से पूर्व होता है या उसके साथ होता है, इसको स्पष्ट किया जाता हैदर्शनं ज्ञानतः पूर्व छद्मस्थे तत्प्रजायते। सर्वज्ञ योगपद्येन केवलज्ञानदर्शने ॥४८
वह दर्शन छद्मस्थ के-केवली से भिन्न प्रल्पज्ञ के-ज्ञान से पूर्व होता है। किन्तु सर्वज्ञ के केवल ज्ञान और केवलदर्शन दोनों एक साथ होते हैं ॥४८।।
आगे क्रमप्राप्त दूसरे अजीव पदार्थ का स्वरूप कहा जाता हैजीबलक्ष्मविपर्यस्तलक्ष्मा देव तवागमे। अजीवोऽपि श्रुतो नूनं मूर्तामूर्तत्वमेदभाक् ॥४६
हे देव ! जो जीव के लक्षण से भिन्न लक्षण वाला है-ज्ञान-दर्शन चेतना से रहित है-उसे आपके पागम में अजीव सुना गया है, अर्थात् उसे पागम में अजीव कहा गया है । वह मूर्त और अमूर्त के भेद से दो प्रकार का है।
विवेचन-जो ज्ञान व दर्शन रूप उपयोग से रहित है उसे अजीव कहते हैं। वह पांच प्रकार का है-धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, प्राकाश, काल और पुद्गल । उनमें एक मात्र पुद्गल मूर्त-रूप, रस गन्ध व स्पर्श से सहित-और शेष धर्म प्रादि चार अमर्त-उक्त रूप-रसादि से रहित हैं ॥४६॥
अब पुण्य के दो भेदों का निर्देश करते हुए उनका स्वरूप कहा जाता हैशुभो यः परिणामः स्याद् भावपुण्यं सुखप्रदम् । भावायत्तं च यत्कर्म द्रव्यपुण्यमवावि तत् ॥ ___जीव का जो शुभ परिणाम होता है उसे भावपुण्य कहा जाता है, वह सुख का देने वाला है। जो कर्म भाव के अधीन है-राग-देषादिरूप शुभ परिणामों के प्राश्रय से बन्ध को प्राप्त होता है-उसे द्रव्यपुण्य कहा गया है जो पुद्गलस्वरूप है ॥५०॥
मागे पाप के दो भेदों का निर्देश करते हुए उनका स्वरूप कहा जाता हैपुण्याद् विलक्षणं पापं द्रव्यभावस्वभावकम् । ज्ञातं संक्षेपतो देव प्रसादाद् भवतो मया ॥५१
पुण्य से विपरीत स्वरूप वाला पाप है । वह भी द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार का है। हे देव! प्रापके प्रसाद से मैंने इस सबको संक्षेप में जान लिया है।
विवेचन-पुण्य जहां प्राणी को सुख देने वाला है वहां उससे विपरीत पाप उसे दुख देने वाला है। जिस प्रकार भाव और द्रव्य के भेद से पुण्य दो प्रकार का है उसी प्रकार पाप भी भाव और द्रव्य के भेद से दो प्रकार का है। जीव का जो अशुभ (कलुषित) परिणाम होता है उसे भावपाप कहते हैं तथा उसके प्राश्रय से जो जीव के साथ पौद्गलिक कर्म का वध होता है उसे द्रव्यपाप कहते हैं ॥५॥
मानव का स्वरूपकर्मागच्छति भावेन येन जन्तोः स प्रास्रवः । रागादिभेदवान् योगो द्रव्यकर्मागमोऽथवा ॥ ___जीव के जिस परिणाम के द्वारा कर्म प्राता है उसे मानव कहते हैं । अथवा द्रव्य कर्म के प्रागमन का कारण जो रागाविभेद युक्त योग है उसे मानव जानना चाहिए।