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ध्यानातक
वैराग्य । इनमें ज्ञान के आसेवन रूप अभ्यास का नाम ज्ञानभावना है। इसके अाश्रय से ध्याता का मन अशुभ व्यापार को छोड़ शुभ में स्थिर होता है। साथ ही उसके द्वारा तत्त्व-प्रतत्त्व का रहस्य जान लेने से ध्याता स्थिरबुद्धि होकर ध्यान में लीन हो जाता है।
तत्त्वार्थश्रद्धान का नाम दर्शन है। शंका-कांक्षा आदि पांच दोषों से रहित एवं प्रशम व स्थैर्य आदि गुणों से युक्त होकर उस दर्शन के आराधन को दर्शनभावना कहते हैं। दर्शन से विशुद्ध हो जाने पर धर्मध्यान का ध्याता ध्यान के विषय में कभी दिग्भ्रान्त नहीं होता।
समस्त सावद्ययोग की निवृत्ति रूप क्रिया का नाम चारित्र और उसके अभ्यास का नाम चारित्रभावना है। इस चारित्रभावना से नवीन कर्मों के ग्रहण के प्रभाव रूप संवर, पूर्वसंचित कर्म की निर्जरा, सातावेदनीय आदि पुण्य प्रकृतियों का ग्रहण और ध्यान; ये विना किसी प्रकार के प्रयत्न के-अनायासही प्राप्त होते हैं।
संसार के स्वभाव को जानकर विषयासक्ति से रहित होना, यही वैराग्यभावना है। इस वैराग्यभावना से जिसका मन सुवासित हो जाता है वह इह-परलोकादि भयों से रहित होकर आशा से-इहलोक और परलोक विषयक सुखाभिलाषा से -भी रहित हो जाने के कारण ध्यान में अतिशय स्थिर हो जाता है (३०-३४)।
२ देश--यह एक साधारण नियम है कि मुनि का स्थान सदा ही युवतिजन, पशु, नपुंसक और कुशील (जुवारी आदि) जनों से रहित होना चाहिए। ऐसी स्थिति में ध्यान के समय तो उसका वह स्थान विशेषरूप से निर्जन (एकान्त) कहा गया है। किन्तु इतना विशेष है कि जो संहनन व धैर्य से बलिष्ठ हैं, ज्ञानादि भावनाओं के व्यापार में अभ्यस्त हैं, तथा जिनका मन अतिशय स्थिरता को प्राप्त कर चुका है, उनके लिए उक्त प्रकार से स्थानविशेष का कोई नियम नहीं है-वे जनों से संकीर्ण गांव में और निर्जन वन में भी निर्बाध रूप से ध्यान कर सकते हैं। ध्याता के लिए वही स्थान उपयुक्त माना गया है जहां पन, वचन एवं काय योगों को समाधान प्राप्त होता है तथा जो प्राणिहिंसादि से विरहित होता है (३५-३७)।
३ काल-स्थान के विषय में जो कुछ कहा गया है वही काल के विषय में भी समझना चाहिए। अर्थात् ध्यान के लिए काल भी वही उपयोगी होता है जिसमें योगों को उत्तम समाधान प्राप्त होता है। इसके सिवाय काल के विषय में ध्याता के लिए दिन व रात्रि आदि का कोई विशेष नियम नहीं निर्दिष्ट किया गया (३८)।
४पासनविशेष-अभ्यास में आयी हुई जो भी आसन आदि रूप शरीर की अवस्था ध्यान में बाधक नहीं होती है उसमें स्थित रहते हुए कायोत्सर्ग, पद्मासन अथवा वीरासन आदि से ध्यान करना योग्य है। कारण यह कि देश, काल और आसन आदि रूप सभी अवस्थाओं में वर्तमान होते हुए मुनि जनों ने पाप को शान्त करके उत्कृष्ट केवलज्ञान आदि को प्राप्त किया है। यही कारण है जो आगम में ध्यान के योग्य देश, काल और आसनविशेष का कोई नियम नहीं निर्दिष्ट किया गया। किन्तु वहां इतना मात्र कहा गया है कि जिस प्रकार से भी ध्यान के समय योगों को समाधान प्राप्त होता है उसी प्रकार का प्रयत्न करना चाहिए (३६-४१)।
५पालम्बन-वाचना, प्रच्छना (प्रश्न), परावर्तना और अनुचिन्ता तथा सामायिक आदि सद्धर्मावश्यक ये ध्यान के मालम्बन कहे गये हैं। जिस प्रकार किसी बलवती रस्सी आदि का सहारा लेकर मनुष्य विषम (दुर्गम) स्थान पर पहुंच जाता है उसी प्रकार ध्याता भी सूत्र आदि-पूर्वोक्त वाचना आदि का---प्राश्रय लेकर उत्तम ध्यान पर आरूढ़ होता है (४२.४३)।
६ क्रम-क्रम का विचार करते हुए यहां लाघव पर दृष्टि रखकर धर्मध्यान के साथ शुक्लध्यान के भी क्रम का निरूपण कर दिया गया है। उसके प्रसंग में यह कहा गया है कि केवलियों के मुक्ति की