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श्री- भास्करनन्दिविरचितः
ध्यानस्तवः
परमज्ञानसवेद्यं वीतवाधं सुखादिवत् । सिद्धं प्रमाणतः सार्व सर्वज्ञ सर्वदोषहम् ॥१॥ अन्तातीतगुणाकीर्णं योगाढ्यैर्वास्तवैः स्तवैः । संस्तुवे परमात्मानं लोकनाथं स्वसिद्धये ॥२॥
जो परमात्मा उत्कृष्ट ज्ञान के द्वारा संवेद्य ( जानने के योग्य), सुखादि के समान बाषा से, रहित, प्रमाण से सिद्ध, सबके हित में उद्यत, समस्त पदार्थों का ज्ञाता, समस्त दोषों का विनाशक अनन्त गुणों से व्याप्त और लोक का अधिनायक है; उस की मैं ( भास्करनन्दी ) योग से सम्पन्न वस्तुभूत स्तवनों के द्वारा आत्मसिद्धि के लिए स्तुति करता हूं ॥
विवेचन - यहाँ योग ( ध्यान ) की प्ररूपणा में उद्यत होकर ग्रन्थकार भास्करनन्दी यह अभिप्राय प्रगट करते हैं कि जो भी सब दोषों को नष्ट करके परमात्मा होता है वह योग के श्राश्रय से - धर्म और शुक्ल ध्यान के प्रभाव से ही होता है। इसलिए मैं उस परमात्मा की योग से सम्पन्न — ध्यान के प्ररूपक – स्तोत्रों के द्वारा स्तुति करता हूं । प्रयोजन उसका स्वसिद्धि - श्रात्मोपलब्धि है ॥१-२॥
वह सिद्धि क्या है, किसके होती है, और उसका उपाय क्या है; इसे धागे स्पष्ट किया जाता
सिद्धिः स्वात्मोपलम्भः स्याच्छुद्धध्यानोपयोगतः । सम्यग्दृष्टेरसंगस्य तत्त्व विज्ञानपूर्वतः [कः ]. शुद्ध ध्यान के उपयोग से — शुक्ल ध्यान के श्राश्रय से—जो निज श्रात्मा की उपलब्धि - स्वात्मानुभवन — होता है उसका नाम सिद्धि है । वह प्रसंग - ममत्वबुद्धि से रहित - सम्यग्दृष्टि के
सम्यग्ज्ञानपूर्वक होती है ॥
विवेचन - ज्ञानावरणादि श्राठ कर्मों के नष्ट हो जाने पर जीव को जो श्रात्मस्वरूप की प्राप्ति होती है उसे सिद्धि कहा जाता है। मुक्ति या मोक्ष इसी के नामान्तर हैं। इस सिद्धि के साधन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र हैं। इनकी पूर्णता शुक्लध्यान के प्राश्रय से हुधा करती है । इसी प्रभिप्राय को व्यक्त करते हुए ग्रन्थकार ने प्रकृत श्लोक में उक्त सिद्धि का अधिकारी उस सम्यग्दृष्टि जीव को बतलाया है जो ध्यान के बल से तत्त्वज्ञानपूर्वक प्रसंग हो चुका है । दृष्टि, दर्शन, रुचि और श्रद्धा ये समानार्थक शब्द हैं। जिस जीव की वह दृष्टि मिथ्यात्व को छोड़कर यथार्थता को प्राप्त कर चुकी है वह सम्यग्दृष्टि कहलाता है। सम्यग्दर्शन के प्राप्त हो जाने पर जीव के जो हीनाधिक ज्ञान होता है वह सम्यक्स्वरूप में परिणत होकर सम्यग्ज्ञान कहलाता है । सम्यग्ज्ञान को प्राप्त हुम्रा मुमुक्षु जीव श्रात्मोत्थान के लिए क्रम से धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान का प्राश्रय लेता है और उसके प्रभाव से शुद्ध प्रात्मस्वरूप के आच्छादक कर्म-कलंक को नष्ट करता हुम्रा प्रसंग हो जाता है । संग, मूर्छा, परिग्रह, राग-द्वेष और प्रासक्ति ये समानार्थक शब्द हैं । - राग-द्वेष अथवा प्रासक्ति के उतरोतर होत होते जाने से जीव पूर्णतया स्वावलम्बी होकर जो परम वीतरागता को प्राप्त कर लेता है, यही सर्वोत्कृष्ट चारित्र है । इस प्रकार रत्नत्रयस्वरूप से प्रसिद्ध उक्त सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के द्वारा जीव शुद्ध प्रात्मस्वरूप को प्राप्त होकर सिद्धि को पा लेता है - मुक्त हो जाता है ॥३॥
प्रकारान्तर से पुनः इसी को व्यक्त किया जाता है