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________________ -१०५] ध्यानस्य ऐहिकफलनिरूपणम् जह वा घणसंघाया खणेण पवणाहया विलिज्जति । झाण-पवणावहया तह कम्म-घणा विलिज्जति ॥१०२॥ यथा वा 'धनसङ्खाताः' मेघौघाः क्षणेन 'पवनाहताः' वायूप्रेरिता विलयं विनाशं यान्ति गच्छन्ति, 'ध्यान-पवनावधूताः' ध्यान-वायुविक्षिप्ता: तथा कर्मैव जीवस्वभावावरणाद् घनाः कर्म-धनाः, उक्तं चस्थितः शीतांशुवज्जीवः प्रकृत्या भावशुद्धया । चन्द्रिकावच्च विज्ञानं तदावरणमभ्रवत् ॥११॥ इत्यादि, "विलीयन्ते' विनाशमुपयान्त्रीति गाथार्थः ॥१०२॥ कि चेदमन्यत् इहलोकप्रतीतमेव ध्यानफलमिति दर्शयति न कसायसमुत्थेहि य बाहिज्जइ माणसेहिं दुक्खेहि। ईसा-विसाय-सोगाइएहि माणोवगयचित्तो ॥१०३॥ 'न कषायसमुत्थैश्च' न क्रोधाद्युद्भवैश्च 'बाध्यते' पीड्यते मानसर्दुःखैः, मानसग्रहणात्ताप इत्याद्यपि यदुक्तं तन्न बाध्यते 'ईर्ष्या-विषाद-शोकादिभिः' तत्र प्रतिपक्षाभ्युदयोपलम्भजनितो मत्सरविशेष ईर्ष्या, विषादः वैक्लव्यम्, शोकः दैन्यम्, प्रादिशब्दाद् हर्षादिपरिग्रहः, ध्यानोपगतचित्त इति प्रकटार्थमयं गाथार्थः ॥१०३॥ सीयाऽऽयवाइएहि य सारीरेहि सुबहुप्पगारेहिं । झाणसुनिच्चलचित्तो न ब[बा] हिज्जइ निज्जरापेही ॥१०४॥ इह कारणे कार्योपचारात् शीतातपादिभिश्च, प्रादिशब्दात् क्षुदादिपरिग्रहः, 'शारीरैः सुबहुप्रकार:' अनेकभेदैः 'ध्यानसुनिश्चलचित्तः' ध्यानभावितमतिर्न बाध्यते, ध्यानसुखादिति गम्यते, अथवा न शक्यते . चालयितुं तत एव 'निर्जरापेक्षी' कर्मक्षयापेक्षक इति गाथार्थः ॥१०४॥ उक्तं फलद्वारम्, अधुनोपसंहरन्नाह इय सव्वगुणाधाणं दिहादिठसहसाहणं झाणं । सुपसत्थं सद्धेयं नेयं झेयं च निच्चंपि ॥१०॥ 'इय' एवमुक्तेन प्रकारेण 'सर्वगुणाधानम्' अशेषगुणस्थानं दृष्टादृष्टसुखसाधनं ध्यानमुक्तन्यायात् सुष्ठ प्रशस्तं सुप्रशस्तम्, तीर्थकर-गणघरादिभिरासेवितत्वात्, यतश्चैवमतः श्रद्धेयं नान्यथैतदिति भावनया 'ज्ञेयम्' ज्ञातव्यं स्वरूपत: 'ध्येयम्' अनुचिन्तनीयं क्रियया, एवं च सति सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राण्यासेवितानि भवन्ति, 'नित्यमपि' सर्वकालमपि, प्राह-एवं तहि सर्वक्रियालोपः प्राप्नोति ? न, तदासेवनस्यापि तत्त्वतो ध्यानत्वात्, नास्ति काचिदसौ क्रिया यया साधूनां ध्यानं न भवतीति गाथार्थः ॥१०५।। । ॥ समाप्तं ध्यानशतकम् ॥ जिस प्रकार मेघों के समूह वायु से ताडित होकर क्षणभर में विलय को प्राप्त हो जाते हैं उसी प्रकार ध्यानरूप वायु से विघटित होकर कर्मरूपी मेघ भी विलीन हो जाते हैं-क्षणभर में नष्ट हो जाते हैं ॥१०२॥ और तो क्या, ध्यान का फल इस लोक में भी अनुभव में प्राता है जिसका चित्त ध्यान में संलग्न है वह क्रोधादि कषायों से उत्पन्न होने वाले ईर्ष्या, विषाद और शोक प्रादि मानसिक दुःखों से पीड़ित नहीं होता ॥१०३॥ मानसिक दुःखों के समान शारीरिक दुःखों से भी वह बाधा को प्राप्त नहीं होता जिसका चित्त ध्यान के द्वारा अतिशय स्थिरता को प्राप्त कर चुका है वह कर्मनिर्जरा की अपेक्षा रखता हमा शीत व उष्ण प्रादि बहुत प्रकार के शारीरिक दुःखों से भी बाधा को प्राप्त नहीं होता-बह उन्हें निराकुलतापूर्वक सहता है ॥१०४॥ इस प्रकार ध्यान के फल को दिखला कर अन्त में उसका उपसंहार करते हुए यह कहा गया है इस प्रकार सब गुणों के प्राधारभूत तथा दृष्ट और अदृष्ट सुख के साधक उस अतिशय प्रशस्त ध्यान का सदा श्रद्धान करना चाहिए, उसे जानना चाहिए और उसका चिन्तन करना चाहिए ॥१०॥ ॥ ध्यानशतक समाप्त हुम्रा ॥
SR No.032155
Book TitleDhyanhatak Tatha Dhyanstava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1976
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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