________________
-६६] धर्म-शुक्लयोः फलानां निरूपणम्
४३ होंति सुहासव-संवर-विणिज्जराऽमरसुहाई विउलाई।
झाणवरस्स फलाइं सुहाणुबंधीणि धम्मस्स ॥६॥ भवन्ति 'शुभाश्रव-संवर-निर्जराऽमरसुखानि' शुभाश्रवः पुण्याश्रवः, संवरः अशुभकर्मागमनिरोधः, विनिर्जरा कर्मक्षयः, प्रमरसुखानि देवसुखानि, एतानि च दीर्घस्थिति-विशुद्ध्युपपाताभ्यां 'विपुलानि' विस्तीर्णानि, 'ध्यानवरस्य' ध्यानप्रधानस्य फलानि 'शुभानुबन्धीनि' सुकुलप्रत्यायातिपुनर्बोधिलाभ-भोगप्रव्रज्याकेवल शैलेश्यपवर्गानुबन्धीनि 'धर्मस्य' ध्यानस्येति गाथार्थः ।।६३॥ उक्तानि धर्मफलानि, अधुना शुक्लमधिकृत्याह
ते य विसेसेण सुभासवादोऽणुत्तरामरसुहं च ।
दोण्हं सुक्काण फलं परिनिव्वाणं परिल्लाणं ॥४॥ ते च विशेषेण 'शुभाश्रवादयः' अनन्तरोदिताः, अनुत्तरामरसुखं च द्वयोः शुक्लयोः फलमाद्ययोः, 'परिनिर्वाणम्' मोक्षगमनं 'परिल्लाणं' ति चरमयोयोरिति गाथार्थः ॥१४॥ अथवा सामान्येनैव संसारप्रतिपक्षभूते एते इति दर्शयति
पासवदारा संसारहेयवो जं धम्म-सुक्केसु ।
संसारकारणाइ तमो धुवं धम्म-सक्काइं॥६५॥ पाश्रवद्वाराणि संसारहेतवो वर्तन्ते, तानि च यस्मान्न शुक्ल-धर्मयोर्भवन्ति संसारकारणानि तस्माद 'ध्रुवम्' नियमेन धर्म-शक्ले इति गाथार्थः ।।६।। संसारप्रतिपक्षतया च मोक्षहेतानमित्यावेदयन्नाह
संवर-विणिज्जरानो मोक्खस्स पहो तवो पहो तासि ।
झाणं च पहाणंगं तवस्स तो मोक्खहेऊयं ॥६६॥ संवर-निर्जरे 'मोक्षस्य पन्थाः' अपवर्गस्य मार्गः, तपः पन्थाः' मागः, 'तयोः' संवर-निर्जरयोः, ध्यानं च प्रधानाङ्गं तपसः पान्तरकारणत्वात्, ततो मोक्षहेतुस्तद् ध्यानमिति गाथार्थः ॥६६॥ अमुमेवार्थ सुखप्रतिपत्तये दृष्टान्तः प्रतिपादयन्नाह
शुभास्त्रव-पुण्य कर्मों का प्रागमन, पापास्रव के निरोधस्वरूप संवर, संचित कर्मों की निर्जरा और देवसुख, ये दीर्घ स्थिति, विशुद्धि एवं उपपात से विस्तार को प्राप्त होकर उत्तम कुल एवं बोधि की प्राप्ति मादि रूप शुभ के अनुबन्धी-उसकी परम्परा के जनक-होते हुए उत्तम धर्मध्यान के फल हैं। अभिप्राय यह है कि धर्मध्यान से पुण्य कमों का बन्ध, पाप कर्मों का निरोध और पूर्वोपाजित कर्म की निर्जरा होती है। ये सब उत्तरोत्तर विशद्धि को प्राप्त होने वाले हैं। इसके अतिरिक्त उससे पर भव में देवगति की प्राप्ति होने वाली है, जहां प्राय की दीर्घता व सांसारिक सुखोपभोग की बहलता होती है। अन्त में उक्त धर्मध्यान के प्रभाव से केवलज्ञान को प्राप्त करके शैलेशी अवस्था को प्राप्त होते हुए ममक्ष ध्याता को मुक्तिसुख भी प्राप्त होने वाला है ॥६॥
इस प्रकार धर्मध्यान के फलों का निर्देश करके प्रब शुक्लध्यान को लक्ष्य करके यह कहा जाता है
विशेषरूप से धर्मध्यान के फलभत वे ही शभास्रव प्रादि तथा अनुपम देवसुख, यह प्रारम्भ के दो शुक्लध्यानों का भी फल है। अन्तिम दो शुक्लध्यानों का फल मोक्ष की प्राप्ति है ॥१४॥
अथवा सामान्य से ही धर्म और शुक्ल ये दो ध्यान संसार के विरोधी हैं, इसे मागे दिखलाते हैं
जो मिथ्यात्वादि मानवद्वार संसार के कारण हैं, वे चूंकि धर्म और शुक्ल ध्यानों में सम्भव नहीं हैं, इसीलिए धर्म और शुक्ल ध्यान नियमतः संसार के कारण नहीं हैं, किन्तु मुक्ति के कारण हैं ॥५॥
मागे यह दिखलाते हैं कि संसार का विरोधी होने से ही वह ध्यान मोक्ष का कारण है
संवर और निर्जरा ये मोक्ष के मार्ग (उपाय) हैं, उन संवर और निर्जरा का मार्ग तप है, तथा उस तप का प्रधान कारण ध्यान है। इसीलिए वह (ध्यान) परम्परा से मोक्ष का कारण है ॥९॥