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विवन
४४ ध्यानशतकम्
[८२'निर्वाणगमनकाले' मोक्षगमनप्रत्यासन्नसमये 'केवलिनः' सर्वज्ञस्य मनो-वाग्योगद्वये निरुद्ध सति अर्द्धनिरुद्धकाययोगस्स, किम् ? 'सूक्ष्मक्रियाऽनिवति' सूक्ष्मा क्रिया यस्व तत्तथा, सूक्ष्मक्रियं च तदनिवति चेति नाम, निवतितुं शीलमस्येति निति, प्रवर्द्धमानतरपरिणामात् न निति अनिवति तृतीयम्, ध्यानमिति गम्यते, 'तनुकायक्रियस्य' इति तन्वी उच्छ्वास-निःश्वासादिलक्षणा कायक्रिया यस्य स तथाविधस्तस्येति गाथार्थः ॥१॥
तस्सेव य सेलेसीगयस्स सेलोव्व णिप्पकंपस्स ।
वोच्छिन्नकिरियमप्पडिवाइज्झाणं परमसुक्कं ॥२॥ 'तस्यैव च' केवलिन', 'शैलेशीगतस्य' शैलेशी प्रावणिता, तां प्राप्तस्य, किविशिष्टस्य ? निरुद्धयोगत्वात् 'शैलेश इव निष्प्रकम्पस्य' मेरोरिव स्थिरस्येत्यर्थः, किम् ? व्यवच्छिन्नक्रियं योगाभावात्, तत्
विवेचन-पूर्वप्ररूपित एकत्ववितर्क अविचार नामक द्वितीय शुक्लध्यान के द्वारा ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्मों के विनष्ट हो जाने पर जीव सर्वज्ञ व सर्वदर्शी हो जाता है, तब वह केवली कहलाता है। केवली तीर्थकर भी होते हैं व सामान्य भी होते हैं। वे अधिक से अधिक कुछ कम (पाठ वर्ष व अन्तर्मुहूर्त कम) एक पूर्वकोटि काल तक इस जीवनमुक्त अवस्था में रह सकते हैं। उनकी प्रायु जब अन्तमहतं मात्र शेष रह जाती है तब यदि वेदनीय, नाम और गोत्र इन तीन प्रघातिया कर्मों की स्थिति प्रायुकर्म की स्थिति के बराबर रहती है तो वे उस समय मन व वचन योगों का पूर्णरूप से निरोध करके बादर काययोग का भी निरोध कर देते हैं और सूक्ष्म-उच्छ्वास-निःश्वासरूप-काययोग का आलम्बन लेकर प्रकृत सूक्ष्मक्रिय-अनिवति शुक्लध्यान पर प्रारूढ़ होते हैं। यह ध्यान तीनों कालो के विषयभूत अनन्त पदार्थों के प्रकाशक केवलज्ञानस्वरूप है। 'एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम्' इस सूत्र में जो 'चिन्ता' शब्द है वह ध्यानसामान्य का वाचक है। इस प्रकार जैसे कहीं पर श्रुतज्ञान को ध्यान कहा जाता हैं वैसे ही केवलज्ञान को भी ध्यान समझना चाहिए। सूक्ष्म काययोग में स्थित रहते हुए चूंकि इस ध्यान की प्रवृत्ति होती है, इसीलिए उसे सूक्ष्मक्रिय कहा गया है । सूक्ष्म काययोग में वर्तमान केवली इस ध्यान के प्राश्रय से उस सूक्ष्म काययोग का भी निरोध किया करते हैं । तत्पश्चात् वे अन्तिम व्युपरतत्रिय-अप्रतिपाति शुक्लध्यान के उन्मुख होते हैं। परन्तु यदि पूर्वोक्त प्रकार से उनके वेदनीय प्रादि की स्थिति प्रायु कर्म की स्थिति के समान न होकर उससे अधिक होती है तो वे उसे प्राय कर्म की स्थिति के समान करने के लिए चार समयों में क्रम से दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्घात करते हैं। तत्पश्चात् चार समयों में उक्त समुद्घातों में फैले हुए प्रात्मप्रदेशों को क्रम से प्रतर, कपाट और दण्ड के रूप में संकुचित करके शरीरस्थ करते हैं। इस प्रकार ध्यान के बल से लोकपूरण समुद्घात में वेदनीय, नाम और गोत्र कर्मों की स्थिति को प्रायु कर्म की स्थिति के समान करके सूक्ष्म काययोग में स्थित होते हुए वे सूक्ष्मक्रिय-अप्रतिपाति ध्यान के ध्याता होते हैं। प्रतिपतन या निवर्तन स्वभाव वाला न होने से इस ध्यान को अप्रतिपाति या अनिवति कहा गया है ॥१॥
प्रागे उक्त केवली के होने वाले व्युपरतक्रिय-अप्रतिपाति परम शुक्लध्यान का निर्देश किया जाता है
शैल (पर्वत) के समान कम्पन-हलन-चलन क्रिया----से रहित होकर शैलेशी अवस्था को प्राप्त हए उक्त केवली के व्युच्छिन्नक्रिय-प्रप्रतिपाति नाम का सर्वोत्कृष्ट शुक्लध्यान होता है।
विवेचन-उक्त क्रम से जब तीनों योगों का पूर्णरूप से निरोध हो जाता है तब योग से रहित हए वे केवली प्रयोगकेवली नामक चौदहवें गुणस्थान में प्रविष्ट होकर शैलेशी अवस्था (देखो पीछे गा. ७) को प्राप्त होते हुए इस व्युच्छिन्नक्रिय-अप्रतिपाति नामक चौथे शुक्लध्यान के ध्याता होते हैं । इससे पूर्व जो श्वासोच्छ्वास के प्रचाररूप सूक्ष्म काय की क्रिया थी, उसके भी विनष्ट हो जाने से इसे भाछिन्नक्रिय या दूसरे शब्द से व्युपरतक्रिय कहा गया है। साथ ही चंकि सम्पूर्ण कर्म की निर्जरा करने