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________________ ४२ ध्यानशतकम् [७७वोच्छं ॥१३॥ मणुयगइ-जाइ-तस-बादरं च पज्जत्त-सुभगमाएज्जं । अन्नयरवेयणिज्जं नराउमुच्चं जसो नामं ॥१४॥ संभवो जिणणामं नराणपुव्वी य चरिमसमयंमि। सेसा जिणसंतानो दुचरिमसमयंमि निळंति ॥१५॥ पोरालियाहि सव्वाहिं चयइ विप्पजहणाहिं जं भणियं । निस्सेस तहा न जहा देसच्चाएण सो पुव्वं ॥१६॥ तस्सोदइयाभावा भब्वत्तं च विणियत्तए समयं । सम्मत्त-णाण-दसण-सुह-सिद्धत्ताणि मोत्तूणं ॥१७॥ उजुसेढिं पडिवन्नो समयपएसंतरं अफुसमाणो। एगसमएण सिझइ ग्रह सागारोवउत्तो सो ॥१८॥ , अलमतिप्रसङ्गेनेति गाथार्थः ॥७६॥ उक्तं क्रमद्वारम्, इदानीं ध्यातव्यद्वारं विवृण्वन्नाह उपाय-ट्ठिइ-भंगाइपज्जयाणं जमेगवत्थुमि । नाणानयाणुसरणं पुव्वगयसुयाणुसारेणं ॥७७॥ सवियारमत्थ-वंजण-जोगंतरओ तयं पढमसुक्कं । होइ पुहुत्तवितक्कं सवियारमरागभावस्स ॥७॥ 'उत्पाद-स्थिति-भङ्गादिपर्यायाणाम्' उत्पादादयः प्रतीताः, आदिशब्दान्मूर्तामूर्तग्रहः, अमीषां पर्यायाणां यदेकस्मिन् द्रव्ये अण्वात्मादी, किम् ? नानानयैः द्रव्यास्तिकादिभिरनुस्मरणं चिन्तनम्, कथम् ? पूर्वगतश्रुतानुसारेण पूर्वविदः, मरुदेव्यादीनां त्वन्यथा ॥७७॥ तत्किमित्याह-'सविचारम्' सह विचारेण वर्तत इति सविचारम्, विचारः अर्थ-व्यञ्जन-योगसंक्रम इति, आह च-'अर्थ- व्यञ्जन-योगान्तरतः' अर्थः द्रव्यम्, व्यञ्जनं शब्दः, योगः मनःप्रभृति, एतदन्तरतः एतावद्भेदेन सविचारम्, अर्थाद् व्यञ्जनं संक्रामतीति विभाषा, 'तकम्' एतत् प्रथमं शुक्लम्' आद्यशुक्लं भवति, किनामेत्यत आह–'पृथक्त्ववितकं सवि. चारम्' पृथक्त्वेन भेदेन, विस्तीर्णभावेनान्ये, वितर्कः श्रुतं यस्मिन् तत्तथा, कस्येदं भवतीत्यत आह-- पर्याप्त, सुभग, प्रादेय, साता-असाता में से कोई एक वेदनीय, मनुष्याय, उच्चगोत्र, यशःकीति, यदि तीर्थकर नामकर्म सम्भव है तो वह और मनुष्यगत्यानुपूर्वी। शेष जिन कर्मप्रकृतियों का सत्त्व केवली के होता है उन्हें वे विचरम समय में क्षीण करते हैं। उस समय केवली के सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, सुख और सिद्धत्व को छोड़कर प्रौदयिक भावों के साथ भव्यत्व भी नष्ट हो जाता है। तब केवली ऋजुधेणि (ऋजगति) को प्राप्त होकर समय के प्रदेशान्तर का स्पर्श न करते हुए साकार उपयोग के साथ एक समय में सिद्ध हो जाते हैं-मोक्षपद को प्राप्त कर लेते हैं ॥७६॥ इस प्रकार क्रम द्वार को समाप्त करके अब ध्यातव्य द्वार का वर्णन करते हैं एक वस्तु में उत्पाद, स्थिति (ध्रौव्य) और भंग (व्यय) आदि अवस्थाओं का द्रव्याथिक व पर्यायाथिक आदि अनेक नयों के प्राश्रय से जो पूर्वगत श्रुत के अनुसार चिन्तन होता है वह प्रथम शुक्लध्यान माना गया है। वह अर्थान्तर, व्यंजनान्तर और योगान्तर की अपेक्षा सविचार है। पृथक्त्ववितर्क सविचार नाम का यह प्रथम शुक्लध्यान रागभाव से रहित-वीतराग छप्रस्थ के होता है । विवेचन-चार प्रकार के शुक्लध्यान में प्रथम पृथक्त्ववितर्क सविचार ध्यान है। पृथक्त्व का अर्थ भेद या विस्तार और वितर्क का अर्थ श्रुत है। तदनुसार यह अभिप्राय हुमा कि जिस ध्यान में श्रुत के सामर्थ्य से द्रव्य की उत्पादादि अवस्थामों का भेदपूर्वक चिन्तन होता है उसे पृथक्त्ववितर्क जानना चाहिए । इस ध्यान में अर्थ से अर्थान्त', व्यंजन से व्यंजनान्तर और विवक्षित योग से योगान्तर में संक्रमण (परिवर्तन) होता रहता है। इसी से इसे सविचार कहा गया है। कारण यह है कि अर्थ, व्यंजन और योग के संक्रमण का नाम ही विचार है। उस विचार से सहित होने के कारण उसे सविचार कहना सार्थक है। अर्थ शब्द से यहाँ ध्यान के विषयभूत द्रव्य व पर्याय को ग्रहण किया नया है। इस ध्यान का ध्याता कभी द्रव्य का चिन्तन करता है तो कभ' उसको छोड़कर पर्याय का चिन्तन करता है, तत्पश्चात् पुनः द्रव्य का चिन्तन करता है। इस प्रकार इसमें अर्थ का संक्रमण होता रहता है। व्यंजन का अर्थ शब्द है । इस ध्यान का ध्याता कभी एक श्रुतवचन का चिन्तन करता है तो कभी उसको छोड़ अन्य श्रतवचन का चिन्तन करता है। इस प्रकार व्यंजन का भी संक्रमण होता है। इसी प्रकार तीनों योगों के बीच भी उसमें संक्रमण होता रहता है। पूर्वगत श्रुत के पारगामी श्रुतकेवली ही इस ध्यान के अधि
SR No.032155
Book TitleDhyanhatak Tatha Dhyanstava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1976
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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