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उनके उपदेश से देवेन्द्रसूरि के शिष्य मनीषी कनकप्रभ ने न्याससारसमुद्धार की रचना की ।
उपर्युक्त प्रशस्ति-काव्यों से स्पष्ट होता है कि कलिकालसर्वज्ञ आचार्य भगवंत श्री के शिष्य पंडित उदयचन्द्र गरि की सत्प्रेरणा से पू. कनकप्रभ मुनि ने 'न्याससारसमुद्धार' की रचना की है।
पू. कनकप्रभ मनीषी चान्द्रगच्छ के अन्तर्गत राजगच्छ में हुए हैं।
चन्द्रगच्छ में प्राचार्य धर्मघोषसूरि नाम के एक महान् 'धर्मसूरि' था। वे व्याकरण के पारगामी, न्यायशास्त्र में निष्णात बुद्धिशाली थे। वे महावादी थे। अंबिका देवी के कृपा-पात्र थे ।
प्रभावक आचार्य हुए हैं, जिनका दूसरा नाम सूत्र अर्थ के समर्थ व्याख्याता और पूर्व
नागौर के राजा प्राल्हरण, शाकंभरी के राजा अजयराज, अर्णोराज तथा विग्रहराज को उन्होंने प्रतिबोध किया था । उनके उपदेश से प्रभावित होकर विग्रहराज ने जैनधर्म स्वीकार किया था और उसने अपने राज्य में पर्व- दिनों में प्रमारि पालन करवाया था ।
पू. आचार्य धर्मघोष सूरिजी म. के पट्टधर पू. पा. रत्न सिंहसूरिजी म. थे । वे भी अत्यंत प्रभावक और प्रतिभा संपन्न थे । उन्होंने भी अपने जीवन में अनेक ग्रन्थों की रचना की है।
पू. प्रा. श्री रत्न सिंहसूरिजी म. के पट्टधर पू. प्रा. श्री देवेन्द्रसूरि हुए और उनके शिष्य पं. कनकप्रभ महर्षि थे । वे भी प्रतिभावंत और जिनशासन के अनुरागी थे।
प्रस्तुत संपादन
पूज्यपाद गुरुदेव पंन्यास प्रवर श्री भद्रंकरविजयजी गणिवर्य श्री के मुनिवर श्री वज्रसेनविजयजी म. सा श्री वज्रसेनविजयजी म. सा के दिल में प्राचीन ग्रन्थों के
परम पूज्य दात्सल्यनिधि स्वर्गीय कृपा पात्र बने पूज्य विद्वद्वयं ग्रात्मीय प्रकाशन की उत्तम भावना रही हुई है, जो अत्यंत ही प्रशस्य है उनके दिल में इस ग्रन्थ के पुनरुद्धार की भावना जागृत हुई और उनकी ही शुभ प्रेरणा से मु भी यत्किंचित् सेवा का अवसर मिला, उनका अत्यंत ही अभारी हूँ ।
उसके लिए मैं
प्रस्तुत ग्रन्थ-संपादनादि में कहीं स्खलना रह गई हो प्रस्तुत ग्रन्थ भव्यात्माओं के सम्यग् ज्ञान की वृद्धि में निमित्त बने भोक्ता बनें इसी शुभेच्छा के साथ
विजयदानसूरि ज्ञानमंदिर
काल्पुर रोड
आषाढ़ द १४, २०४२ (चातुर्मास प्रारंभ दिवस ) दिनांक २०-७-६६ :
तो उसके लिए क्षमायाचना के साथ, और वे भव्यात्माएँ क्रमशः शाश्वत पद की
--मुनि रत्नसेन विजय