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अनुपस्थित था उसकी आवाज में, वही मौजूद था। वह अहंकार की घोषणा थी। और जब हिल्लाज ने कहा तो बात बिलकुल उल्टी थी। शब्द वही थे, बात बिलकुल उल्टी थी। मैं मौजूद था, हिल्लाज बिलकुल मिट गया था। शब्द वही थे। फेरोह के शब्दों में फेरोह था, मैं नहीं था। हिल्लाज के शब्दों में मैं था, हिल्लाज नहीं था। मेरी गैर-मौजूदगी फेरोह के लिए अभिशाप बन गई और मेरी मौजूदगी मंसूर के लिए आशीष बन गई।'
सब निर्भर करता है एक छोटी-सी बात पर। एक छोटी-सी बात पर सब दारोमदार है : तुम जो करते हो उससे मैं न भरे। तो बिना किये भी आदमी परमात्मा तक पहुंच जाता है। और तुम करते हो लाख करो जप-तप, यज्ञ-याग, कुछ भी न होगा। अगर तुम करनेवाले मौजूद हो, तो तुम अकड़ते जाओगे। तुम जितने वजनी होते हो, परमात्मा उतना दूर हो जाता है। तुम जितने मौजूद होते हो उतना परमात्मा गैर-मौजूद हो जाता है।
जब मेरे पास कोई आकर कहता है कि ईश्वर कहां है, हम देखना चाहते हैं! तो बड़ी कठिनाई होती है उन्हें यह बात समझाने में कि ईश्वर को तुम तब तक न देख सकोगे, जब तक तुम हो। तुम्हारी मौजूदगी परदा है। ईश्वर पर कोई परदा नहीं है, ईश्वर उघड़ा खड़ा है, नग्न खड़ा है। परदा तुम्हारी आंख पर है और परदा तुम्हारा है।
अष्टावक्र कहते हैं, खयाल रखना : निरोधादीनि कर्माणि जहांति जडधीर्यदि।
लोग ऐसे जड़बुद्धि हैं कि एक तो बहुत मुश्किल है कि वे भोग से बाहर निकलें फिर कभी निकल आयें किसी सौभाग्य के क्षण में तो उसी अंधेपन से योग में पड़ जाते है। चित्त के निरोध में लग जाते हैं। पहले चित्त का भोग, फिर चित्त का निरोध| पहले चित्त के गुलाम बनकर चलते, अब चित्त की छाती पर चढकर जबरदस्ती चित्त को शांत करना चाहते हैं।
___ और अगर ये मूढूधी, ये जड़बुद्धि लोग राजी भी हो जायें, समझ में इनके आ जाये तो भी ये गलत समझ लेते हैं। कहा कुछ, सुन कुछ लेते हैं।
अष्टावक्र के सूत्रों को पढ़कर बहुत बार तुम्हारे मन में भी उठा होगा अरे! तो फिर ध्यान इत्यादि की कोई जरूरत नहीं है? तो फिर मजा करें। तो फिर जैसे हैं वैसे बिलकुल ठीक हैं।
अष्टावक्र यही नहीं कह रहे हैं। अष्टावक्र ध्यान से नीचे गिरने को नहीं कह रहे हैं, ध्यान से ऊपर जाने को कह रहे हैं। दोनों हालत में ध्यान छुट जाता है, लेकिन नीचे गिरकर मत छोड़ देना, ऊपर उठकर छोड़ना।
अल-हिल्लाज और फेरोह के शब्द एक जैसे हैं। फेरोह नीचे गिरकर बोला, हिल्लाज अपने से ऊपर उठकर बोला। ध्यान के पार भी लोग गये हैं। जो गये हैं वही पहुंचे हैं। लेकिन ध्यान से नीचे गिरकर तो तुम भोग में गिर जाओगे।
'यदि अज्ञानी चित्त-निरोधादि कर्मों को छोड़ता भी है तो वह तत्थण मनोरथों और प्रलापों को पूरा करने में प्रवृत्त हो जाता है।'