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यह कम निश्चित इसे न कोई बदल सका है, बदल सकेगा इससे ही तो कहता हूं? हैं व्यर्थ अश्रु और व्यर्थ रुदन भी हंस कर दिन काटे सुख के हंस-खेल काट फिर दुख के दिन भी
दुख को भी स्वीकार कर लो वैसा, जैसा सुख को स्वीकार किया। स्वीकार परम हो जाये तो खेल शांत हो जाता है।
और कोई उपाय भी नहीं है। दो ही मार्ग हैं. या तो लड़ो। लड़ों तो बंट जाते हो। लड़ो तो कभी हार होती है, कभी जीत होती है। कभी सुख, कभी दुख। कभी पराजय, कभी विजय। कभी सेहरा बंधता, कभी धूल में चारों खाने चित पड़ जाते। या तो लड़ो-एक उपाय। लड़ों तो वंद्व है।
या मत लड़ों और साक्षी हो जाओ। तो फिर न कोई हार है, न कोई जीत है। साक्षी का अर्थ है, खेल के बाहर हो गये। कर्ता का अर्थ है, खेल के हिस्से। भोक्ता का अर्थ है, खेल के हिस्से। साक्षी का अर्थ है, खेल के बाहर हो गये। दूर बैठकर दर्शक की तरह देखने लगे। रहे यहां खड़े भी तो भी दर्शक मात्र की तरह ही रह गये। और यहां तो सब बदल रहा है, सिर्फ एक ही नहीं बदल रहा है : साक्षी।
कल जिस ठौर खड़ी थी दुनिया आज नहीं उस ठांव है जिस आंगन थी धुप सुबह उस अपान में अब छांव है प्रतिपल नूतन जन्म यहां पर प्रतिपल नूतन मृत्यु है देख आंख मलते -मलते ही बदल गया सब गांव है रूप नदी-तट तू क्या अपना मुखड़ा मल-मल धो रही है न दूसरी बार नहाना संभव बहती धार में कोई मोती गूंथ सुहागन तू अपने गलहार में
मगर विदेशी रूप न बंधनेवाला है सिंगार में यहां रूप बन ही नहीं पाता। बनते-बनते बिगड़ जाता है।
कोई मोती गूंथ सुहागन तू अपने गलहार में मगर विदेशी रूप न बंधनेवाला है सिंगार में
यहां कुछ ठहरता ही नहीं तो सिंगार बने कैसे! यहां कुछ ठहरता ही नहीं तो जीत अंतिम कैसे हो? यहां जीत हार में बदल जाती है, हार जीत में बदल जाती है। यहां किसी भी चीज को उसकी अंतिम सीमा तक खींचकर ले जाओ, वह अपने से विपरीत में बदल जाती है। जीते चले जाओ, आखिर में मौत आ जाती है।