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तुम जीवन को ही नहीं समझ पाते, शास्त्र को क्या समझोगे ? जीवन इतनी खुली हुई किताब सामने पड़ी है - इतनी प्रगट, इतनी स्पष्ट, परमात्मा के हाथों लिखी सामने पड़ी है, वही समझ में नहीं आती तो शब्दों में संजोये शास्त्र तो तुम्हारी समझ में न आ सकेंगे।
तुम इसी को चूक जाते हौ। गुलाब खिलता है, उसमें तुम्हें परमात्मा नहीं दिखता। तुम्हारे भीतर चैतन्य की धारा बह रही है, उसमें परमात्मा नहीं दिखता। तुम मुर्दा किताबों में, कागज पर स्याही के धब्बों में क्या खोज लोगे? वहां तो भटक जाओगे। वहां से तुम न खोज पाओगे। ही, जिसे जीवन में दिखने लगता है उसे शास्त्र में भी मिल जाता है। और जिसको जीवन में ही नहीं दिखता ऐसे अंधे को शास्त्र में क्या मिलेगा?
तुम कहानी सुनी है न? पांच अंधे गये हाथी को देखने। जिंदा हाथी सामने खड़ा। उन्होंने टटोलकर भी देखा, फिर भी गड़बड़ हो गई। कोई कहने लगा, खंभे की तरह है, जिसने पैर छुआ। कोई कहने लगा, सूप की तरह है, जिसने कान छुआ - और इसी तरह।
अब तुम समझो कि इन अंधों को तुम शास्त्र दे दो, जिसमें हाथी के संबंध में चित्र बना हुआ है। जो असली हाथी के साथ चूक गये, कागज पर बनी हाथी की तस्वीर पर हाथ फेरकर कुछ समझ पायेंगे? बहुत मुश्किल है। बहुत असंभव है।
तो पहली तो बात. शास्त्रों में मत खोओ समय, स्वयं में लगाओ। हा, स्वयं का शास्त्र खुल जायेगा तो सब शास्त्र समझ में आ जायेंगे।
और दूसरी बात संसार की चिंता अभी न करो। अभी तो तुम अपनी कर लो। अभी तो तुम अपनी ही कर लो तो बहुता अभी तो तुम्हारी ही हालत बड़ी गड़बड़ है। अपनी ही नाव डूबी जा रही है, तुम किसकी नाव बचाने जा रहे 3: तुम्हें ही तैरना नहीं आता, किसी और दूसरे को बचाने चले जाना, नही और उसको डुबकी लगवा दोगे, नहीं डूबता होगा तो डुबा दोगे।
चिंता तुम्हें होती है लोगों की? कभी अपनी हालत देखी भीतर ? कहीं ऐसा तो नहीं है कि लोगों की चिंता सिर्फ अपने से बचने की एक तरकीब, पलायन का एक उपाय हो? अक्सर ऐसा है।
मेरे पास समाजसेवक आ जाते हैं। वे कहते हैं, हम समाजसेवा में लगे हैं। मैं उनसे पूछता हूं तुमने अपनी सेवा पूरी कर ली? वे कहते हैं, फुरसत कहां? वे कहते हैं, ध्यान इत्यादि की हमें फुरसत नहीं। पहले हम समाज की सेवा कर लें।
तुमने ध्यान ही नहीं किया तो तुम्हारी सेवा झूठी होगी। इसके पीछे कुछ और प्रयोजन होगा। यह सेवा भी सच्ची नहीं हो सकती । यह सेवा भी एक तरह की शराब है, जिसमें तुम अपने को भुलाये रखते हो, डुबाये रखते हो।
पहले अपने को तो जान लो थोड़ी अपने से पहचान कर लो, फिर तुम्हारे भीतर से जो प्रेम उठे, करुणा उठे वह बहेगा। जरूर बहेगा। मैं उसको रोकने को नहीं कहता, मगर हो तब न! अभी तो तुम जबरदस्ती बहा रहे हो। अभी इस बहाने में कुछ सार नहीं है।
क्षितिजों तक मत जा रे ऐ नासमझ समझ