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के आशीष से कुछ हो जाये। तो वह अपने बेटे की लाश को लेकर गई। बुद्ध के चरणों में लाश रख दी और कहा, आप आये हैं, यह देखें, मैं अभी जवान हूं, मेरा पति चला गया। यह मेरा बेटा भी गया । आप कुछ करें। मेरे दुख को देखें। और वह जार-जार रो रही है । बुद्ध ने कहा, ठहर, कुछ करूंगा। कुछ करना ही पड़ेगा। उसकी हिम्मत लौट आई। उसके आंसू सूख गये। उसने कहा, कितनी देर लगेगी ? बुद्ध ने • कहा, थोड़ी ही देर लगेगी। तेरे गांव में तू जा। किसी भी घर से किसी भी घर से चार दाने चावल के मांग ला। लेकिन ऐसे घर से मांगना, जहां कोई मौत कभी घटित न हुई हो।
वह भागी। वह तो भूल ही गई कि यह क्या बात बुद्ध ने कही है। यह कहीं होनेवाली है! लेकिन जब आदमी अपने दुख में डूबा होता है तो कौन गणित लगाता ? शायद कोई घर हो, जहां मौत कभी
हुई हो। और जब बुद्ध कहते हैं तो जरूर कोई घर होगा। वह घर-घर द्वार-द्वार मांगने लगी कि चार दाने चावल के मुझे दे दो। लोग बोरियां खोल दिये। उन्होंने कहा, पूरी बोरी की बोरी ले जा | हम सारा खलिहान तेरे घर पर उड़ेल दें लेकिन क्षमा कर हमारे दाने काम न आयेंगे। हमारे घर में तो बहुत मौतें हो चुकीं जिंदा तो बहुत कम हैं मरे बहुत हैं। हमारे बाप मरे, बाप के बाप मरे, मां मरी, मां की मां मरी, हमारे भाई मरे, किसी की पत्नी मरी, किसी के पति मरे, किसी के बेटे, किसी की बेटी। मुर्दों की संख्या ज्यादा है, वे लोग कहने लगे, जिंदा तो बहुत कम हैं दो चार बचे हैं। लाखों मरे हैं।
घर-घर घूमते-घूमते लेकिन एक बात उसकी समझ में साफ होने लगी कि मौत तो घटती ही है। हर घर में घटती है। हर आदमी को घटती है। मेरे साथ अपवाद नहीं हो सकता। पूरे गांव में मांगते- मांगते किसा गौतमी समाधि को उपलब्ध हो गई। जब वह लौटकर आई तो परम शांत थी। भिक्षु द्वार पर खड़े थे, इस रहस्यपूर्ण लीला को देख रहे थे कि बुद्ध ने क्या किया| अब क्या होगा ? क्या इसे चावल मिल जायेंगे? क्या बेटा जी उठेगा? और किसा गौतमी जब शांत, परम मौन में, बड़े प्रसाद से भरी आने लगी तो वे समझे कि मिल गये दाने । चमत्कार होकर रहेगा।
दौड़े। बुद्ध को उन्होंने कहा कि किसा गौतमी आ रही है, बिलकुल शांत है। आंसू बिलकुल जा चुके हैं। जरा भी बेचैनी, दुख की कोई छाया नहीं है। लगता है, वे चावल जो आपने कहे थे, मिल गये। बुद्ध ने कहा, पागलों, ठहरो, रुको, उसे आने दो। उसे चावलों से बड़ी कोई चीज मिल गई है। उसे जीवन का अर्थ मिल गया है। वह समझ कर आ रही है। उसके भीतर किरण उतरी है। उसका अंधेरा कट गया है।
और जब किसा गौतमी आकर उनके चरणों में गिरी और उसने कहा, मुझे दीक्षा दें। और उसने आंख भी उठाकर न देखी उस बेटे की लाश की तरफ। उसने लोगों से कहा, ले जाओ। मरघट पर जला दो। क्योंकि एक बात साफ हो गई कि यहां मौत तो घटती ही है। सभी की घटती है, देर- अबेर अभी-कभी इससे क्या फर्क पड़ता है? आज कि कल, दो दिन पहले कि दो दिन बाद, मौत तो यहां सुनिश्चित है। जो सुनिश्चित है उससे लड़ना व्यर्थ है। मैंने मौत को स्वीकार कर लिया । और मौत को स्वीकार करते ही मेरे भीतर एक ऐसी किरण उतरी है जो अमृत की है; जिसकी कोई मृत्यु नहीं