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जगह छूट गई। उसी खाली जगह में से तुम्हें अपना दर्शन होगा। उस अंतराल का नाम ही ध्यान की झलक है। वहां से तुम्हें पहले स्वाद मिलने शुरू होंगे।
जैसे किसी ने द्वार खोला और सूरज दिखाई पड़ा। बहुत दूर है सूरज अभी। लेकिन द्वार खोलने से दिखाई पड़ता। ऐसे ही एक विचार भी गिर जाये और थोड़ी-सी खाली जगह आ जाये तो उसी खाली जगह में से अपने से संबंध जुड़ता, क्षण भर को जुड़ता लेकिन वह क्षण भी शाश्वत हो जाता। वह क्षण भी रूपांतरित कर जाता। वह क्षण भी बड़ी गहरी कीमिया है।
बुद्धिपर्यन्तसंसारे मायामात्रं विवर्तते।
और जब तक बुद्धि है, विचारों से भरा हुआ जाल है तुम्हरे भीतर तब तक संसार है। और तब तक माया ही माया है। इसको ख्याल में लें। संसार बाहर नहीं है, बुद्धि की विचारणा में है। संसार ध्यान का अभाव है।
निर्ममो निरहकारो निष्काम: शोभते बुधः।
और वह जो बुद्धत्व को प्राप्त हो गया उसके भीतर कौन-सी क्रांति घटती? न तो उसके भीतर ममता रह जाती, न अहंकार रह जाता, न कामना रह जाती। विचार के जाते ही ये तीन चीजें चली जाती हैं। कामना चली जाती। बिना विचार के कामना चल नहीं सकती। कामना को चलने के लिये विचार के अश्व चाहिए। विचार के घोडों पर बैठकर ही कामना चलती है। अगर तुम्हारे भीतर विचार नहीं तो तुम कामना को फैलाओगे कैसे? किन घोड़ों पर सवार करोगे कामना को? निर्विचार चित्त में तो कामना की तरंग उठ ही नहीं सकती। इसलिए कामना मर जाती है विचार के साथ।
ममता मर जाती। किसको कहोगे मेरा? किसको कहोगे अपना? किसको कहोगे पराया? मेरा और तेरा विचार का ही संबंध है। जहां विचार नहीं वहां कोई मेरा नहीं, कोई तेरा नहीं। जहां विचार नहीं है वहां सब संबंध विसर्जित हो गये। सब संबंध विचार के हैं।
और तीसरी चीज अहंकार। जहां विचार नहीं वहां मैं भी नहीं बचता। क्योंकि मैं सभी विचारों के जोड़ का नाम है। सभी विचारों की इकट्ठी गठरी का नाम मैं।
ये तीन चीजें हट जाती हैं जैसे ही विचार हटता। इसलिए मेरा सर्वाधिक जोर ध्यान पर है। ध्यान का इतना ही अर्थ होता है, तुम धीरे - धीरे निर्विचार में रमने लगो। बैठे हैं, कुछ सोच नहीं रहे। चल रहे हैं और कुछ सोच नहीं रहे। सोच ठहरा हुआ है। इस ठहरेपन में ही तुम अपने में डुबकी लगाओगे। इस ठहरेपन में ही स्फुरणा होगी, समाधि जगेगी।
बुद्धिपर्यन्तसंसारे मायामात्रं विवर्तते। निर्ममो निरहकारो निष्काम: शोभते बुधः।। अक्षय गतसंतापमात्मानं पश्यतो गुनेः। क्य विद्या च क्य वा विश्व क्य देहोउहं ममेति वा।।
'अविनाशी और संतापरहित आत्मा को देखने वाले मुनि को कहा विदया, कहां विश्व, कहां देह और कहां अहंता-ममता है?'