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काल-कवलित जो नहीं हैं हर तरफ तम की विरासत धुंध है कडुवा धुआं है!
तंतु-प्रेरित गात्र हो तुम एक पुतले मात्र हो तुम इस जगत की नाटिका के क्षणिक भंगुर पात्र हो तुम इसलिए हर भूमिका में रंग भरो तुम भूमि जामे बन सको निरपेक्ष तो फिर क्या दुआ, क्या बद्दुआ है मन कहा है? क्या हुआ है?
दृष्टि तंद्रिल, श्रवण सोये अश्रु पंकिल, नयन खोये मन कहा है? क्या हुआ है?
हम इतनी बुरी तरह जो भटके हैं, मन कहीं बाहर है इसलिए भटके हैं।
मन कहां है? क्या हुआ है?
और यह जो मन बाहर भटका है, कहीं-कहीं भटका है, अनंत- अनंत संसारों में भटका है, न मालूम कितनी वासना-कामनाओं में भटका है, इसकी वजह से हम घर नहीं लौट पाते। यह हमें खींचे लिये जाता। यह हमें दौड़ाये चला जाता। इसकी वजह से हम अपने को नहीं देख पाते। यह सब दिखा देता और अपने से वंचित कर देता।
मन कहां है? क्या हुआ है? तंतु –प्रेरित गात्र हो तुम एक पुतले मात्र हो तुम इस जगत की नाटिका के क्षणिक भंगुर पात्र हो तुम इसलिए हर भूमिका में रंग भरो तुम भूमि जामे