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गुरु -शिष्य के गिर जाने के बाद कुछ बचा नहीं गिरने को। सिर्फ एक छोटा-सा वक्तव्य. बहु नात्र किमुक्तेन।
अब क्या कहूं? अब कहने को कुछ भी नहीं है। न तो कुछ है और न कुछ नहीं है। न आस्तिकता का कुछ अर्थ है, न नास्तिकता का। न अस्ति का कोई अर्थ है, न नास्ति का।
क्व चास्ति क्व च व नास्ति क्यास्ति चैकं क्व च द्वयम्। अब तक कहा कि एक है, एक है, अद्वय है, अद्वैत है, अब कहा कि अब एक भी कहना व्यर्थ और दो भी कहना व्यर्थ। गयीं सब वे बातें, गया सब वह गणित। और अब कुछ कहने जैसा नहीं है।
किंचिन्नोत्तिष्ठते मम। यह वचन बड़ा अदभुत है। इसका अर्थ होता है -कुछ भी नहीं उठता अब मुझमें। किंचित्रोत्तिष्ठते मम।
कोई लहर नहीं उठती। कोई तरंग नहीं उठती, सब शून्य हुआ, या सब पूर्ण हुआ अधूरे में उठाव है। पूरे में कैसा उठाव! अधूरे में गति है, पूरे में कैसी गति! आधी गागर आवाज करती है, अधभरी गागर आवाज करती है। पूरी भरी गागर आवाज नहीं करती या पूरी खाली गागर आवाज नहीं करती। जहां पूर्णता है, वहां आवाज नहीं, वहां शून्य है। वहां शून्य का परम संगीत है। जहां अधूरापन है, वहां आवाज है।
किचिन्नोत्तिष्ठते मम। अब मुझमें कुछ भी नहीं उठ रहा है। सब परम विश्रांति को उपलब्ध हो गया है।
ऐसी घड़ी तुम्हारे जीवन में भी आ सकती है। तुम्हारे सहयोग की जरूरत है। ऐसा परम भाव तुम्हारा भी हो सकता है, तुम पर ही निर्भर है। एक छोटी-सी कहानी कहूंगा
एक संत था, बहुत वृद्ध और बहुत प्रसिद्ध दूर-दूर से लोग जिज्ञासा लेकर आते, लेकिन वह सदा चुप ही रहता। हा, कभी-कभी अपने डंडे से वह रेत पर जरूर कुछ लिख देता था। कोई बहुत पूछता, कोई बहुत ही जिज्ञासा उठाता तो लिख देता-संतोषी सुखी; भागो मत, जागो; सोच मत, खो; मिट और पा, इस तरह के छोटे -छोटे वचन। जिज्ञासुओं को इससे तृप्ति न होती, और प्यास बढ जाती। वे शास्त्रीय निर्वचन चाहते थे। वे विस्तारपूर्ण उत्तर चाहते थे। और उनकी समझ में न आता था कि यह परम संत बुद्धत्व को उपलब्ध होकर भी उनके प्रश्नों का उत्तर सीधे-सीधे क्यों नहीं देता। यह भी क्या बात है कि रेत पर डंडे से उलटबासिया लिखना! हम पूछते हैं, सीधा-सीधा समझा दो। वे चाहते थे कि जैसे और महात्मा जप -तप, यज्ञ –याश, मंत्र -तंत्र, विधि-विधान देते थे, वह भी दे। लेकिन वह मुस्काता, चुप रहता, ज्यादा से ज्यादा फिर कोई उसे खोदता-बिदीरता तो वह फिर लिख देता–संतोषी सदा सुखी, भागो मत, जागो, बस उसके बंधे -बंधाये शब्द थे। बड़े -बड़े पंडित आए और थक गये और हार गये और उदास होकर चले गये, कोई उसे बोलने को राजी न कर सका। कोई उसे ज्यादा विस्तार में जाने को भी राजी न कर सका।
लेकिन एक बात थी कि उसके पास कुछ था, ऐसी प्रतीति सभी को होती। उसके पास एक