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बूंद - बूंद में भरने वाले भरे – पुरे सागर क्यों रीते
कुशल-क्षेम ही कहते सुनते चले गये सब क्यूं सिर सुनते ब्रह्म सत्य तो जग मिथ्या क्यों रविकर क्यों स्वप्नाबर बुनते तम में किरण किरण तम कारा जीत जीत क्यों जीवन हारा हीरा जनम गंवाया यों ही रोते - गाते, खाते - पीते ज्ञान गुमान शेष हो जाते
आदि अंत को सीते -सीते कहीं कोई निराकरण नहीं दिखायी पड़ता। जीवन की चादर के आदि- अंत सीते -सीते ही सारा जीवन बीत जाता है। धन, पद, ज्ञान के सब गुमान व्यर्थ हो जाते।
हीरा जनम गंवाया यों ही और यह हीरे -सा जन्म ऐसे ही खो जाता है।
तो तुम्हें बड़ी हैरानी होती है जब तुम अमृत, अद्वैत, आनंद, सच्चिदानंद के गीत सुनते हो, तो तुम्हें लगता है कहां की बातें हो रही हैं! हम यहां दुख में पड़े-दुख साकल बजा रहा है-तुम्हें रस बहाने की पड़ी है! तुम्हें मधु पिलाने की पड़ी है! तुम्हें गीत गाने की पड़ी है! लेकिन फिर भी मैं तुमसे कहता हूं, अगर तुम सुन सको और तुम थोड़ा अपने दुख की इस गठरी को उतारकर थोड़ा सा भी, एक क्षण को भी इस महोत्सव में सम्मिलित हो सको, जिसका निमंत्रण सिद्धपुरुषों ने तुम्हें दिया है तो तुम भी हंसोगे। यह गठरी उतारते से ही तुम्हें दिखायी पड़ जाएगी कि झूठ थी, अपनी ही बनायी थी।
तुम भी आंचल गीला कर लो अब रूठे रहो न फागुन में चर्गो पर थाप पड़ा गहरी, सब फड़क उठे ढप-ढप ढोलक खड़के मृदंग झमकी झांझें पग थिरक उठे नैना अपलक लो होड़ लगी देखा -देखो