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बहुमूल्य जीवन मिला है और ऐसा गंवा रहे हो। ऐसा बहुमूल्य रतन सा जीवन मिला है, कौड़ियों में लुटा रहे हो। तुम तो अभी अर्थ का अनर्थ किये दे रहे हो।
जो दे व्यर्थ को अर्थ
वही सिद्ध वही समर्थ जो जीवन की व्यर्थता में से भी सार्थक को खोज ले, जो इस कूड़े-करकट में हीरे को पहचान ले, जो इस लहरों के जाल में सागर में इबकी लगा ले, जो सपनों में न खोए और सत्य को पकड़ ले। लहर निगोड़ी
दिन भर दौड़ी मांगा मोती लायी कौड़ी तुम्हारा जीवन ऐसा है लहर निगोड़ी दिन भर दौड़ी मांगा मोती
लायी कौड़ी दौड़ते तो जिंदगी भर हो, दिन बीत जाता है दौड़ते -दौड़ते, लाते क्या हो? सांझ घर क्या लाते हो? कौड़िया लिये चले आते हो। उदास, थके, आसुओ के सिवाय तुम्हारे जीवन की कोई फलश्रुति नहीं है। सिद्ध वही जो इसी क्षण, यहीं हीरा ले आया। इसी क्षण डुबकी लगायी और मोती ले आया। अभी और यहीं जिसने अपने सुख, परम, महासुख को उदघोषित कर दिया।
लेकिन तुम्हें कठिनाई होती है, तुम तो इस आनंद की खबर को सुनकर भी बेचैन होने लगते हो। क्यों?
मैं नियति के व्यंग्य से घायल हुआ हू
और तुमको गीत गाने की लगी है! तुम तो सिद्धों से नाराज हुए हो तुम तो बुद्धों से नाराज हुए हो तुमने तो उनसे जा-जाकर बार-बार कहा -
मैं नियति के व्यंग्य से घायल हुआ हूं और तुमको गीत गाने की लगी है!
इस तरह की चोट कुछ मन पर हुई है घाव गहरा, खून पर बहता नहीं है मन बहुत समझा रहा आघात सह जा किंतु तन कमजोर यह सहता नहीं है