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दस अंगुलियां हैं। इस पर कोई दस आंकडे होना जरूरी नहीं। तो फिर गणितज्ञों ने बहुत कोशिश की कि इतने आंकड़ों से कम से काम चल सके। तो लीवनिस बड़ा दार्शनिक और गणितज्ञ हुआ, उसने तीन आंकड़े लिये स्थ, दो, तीन। फिर तीन के बाद चार नहीं आता, तीन के बाद दस आता है। तीन मूल आंकड़े, उसने कहा तीन से काम चल जाएगा। उसको तीन का ख्याल आया ईसाई 'ट्रिनिटी' से कि जीसस कहते हैं, मूलरूप से तीन हैं। वैसा हिंदू भी कहते हैं-त्रिमूर्ति। मूल रूप से तीन हैं। और वैसा वैज्ञानिक भी कहते हैं-इलेक्ट्रान, प्रोटान, च्छान। पदार्थ का तीन खंड़ है मूल| तो उसने सोचा कि तीन पर्याप्त होना चाहिए। जब तीन का ही सारा जगत विस्तार है तो तीन से ही गणित का भी विस्तार हो जाना चाहिए। तो एक, दो, तीन। तीन के बाद आता है दस; फिर ग्यारह, बारह, तेरह, फिर तेरह के बाद आता है बीस। इस तरह संख्या चलती है। उसने काम चला लिया तीन आकड़ों से। और विज्ञान तो हमेशा सोचता है, जितने से कम से काम चल जाए उतना अच्छा।
फिर आइंस्टीन ने सोचा कि तीन की इतनी कोई जरूरत नहीं मालूम पड़ती। दो से काम चल सकता है। क्योंकि सारा जगत वंद्व है-डुआलिटी। अंधेरा और उजेला, सुबह और शाम, जन्म और मृत्यु, सारा जगत द्वंद्व है। स्त्री-पुरुष, ऋण- धन, सारा जगत वंद्व है। तो दो से काम चल जाना चाहिए, तो उसने दो से ही काम चलाया। एक और दो। फिर आ जाती है पुनरुक्ति एक, दो की। तीन नहीं आता। एक और दो के बाद आ जाता है दस। आइंस्टीन ने दो से काम चला लिया। फिर बहुतों ने कोशिश की है कि इससे भी कम हो सके, लेकिन इससे कैसे कम हो, इससे कम नहीं हो सकता। एक से अकेले काम नहीं चल सकता। एक से गणित नहीं बनता। दो तो अनिवार्य हैं।
भारतीय संतों को यह बात सदा से खयाल में रही कि जहां तुमने एक कहा, वह दो तो आ ही जाएगा, एक तो बन ही नहीं सकता; एक अकेला हो ही नहीं सकता, उसके लिए होने के लिए दूसरे का होना बिलकुल जरूरी है। इसलिए वे कभी नहीं कहते कि मुझे एक को, वे कहते हैं, मुझ अद्वय को। वे कहते हैं, मेरी जो सत्ता है वहा दो नहीं हैं, अब तुम समझ लेना इशारा। मगर वह इशारा है। स्पष्ट नहीं कहते कि वहां एक है। इतना ही कहते हैं कि दो नहीं है। द्वंद्व वहां समाप्त हो गया है। वंद्व के वहां हम पार चले गये हैं। दो के अतीत हो गये हैं, दुई मिट गयी है।
स्वस्वरूपेठहमद्वये।
'अपने स्वरूप में, अपने अद्वय स्वरूप में न मुझे कोई लोक है, न कोई मुमुक्षा है, न कोई योग है, न कोई ज्ञान है, कहां बद्ध, कहा मुक्त?'
न मैं बद्ध हूं? न मैं मुक्त हूं, न मैं अमुक्त, न ज्ञानी, न अज्ञानी। सब विशेषण खो गये हैं। यह निवेदन कर रहे हैं जनक अपने गुरु के सामने कि तुमने मुझे जगाया है। तुमने जो जाग मुड़ाए दी, उससे मुझे ऐसा हुआ है। यह शिष्य अपने हृदय को खोलकर रख रहा है जो उसे हुआ है। और श्रवणमात्रेण हुआ है। जनक को सिर्फ अष्टावक्र को सुन-सुनकर ऐसा हुआ है। जनक अप्रतिम पात्र हैं। इससे श्रेष्ठ कोई पात्र नहीं होता, जिसे सुनकर ही सत्य का अनुभव हो जाए। और ऐसा अनुभव कि जो -जो कमियां गुरु ने छोड़ दी थीं-जानकर छोड़ दी थीं-उनको वह पूरा कर सका। उनको पूरा