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मत्स्वरूपे निरंजने ।
जहां कोई अंजन नहीं रह जाता है, कोई लेप नहीं रह जाता है। जहां तुमने भीतर की उस अंतर्वस्तु को पहचान लिया जो न स्त्री, न पुरुष, न जवान, न की; न गोरी, न काली, न हिंदू न मुसलमान | सदा द्वंद्वरहित मुझमें कहां शास्त्र हैं?'
सारे शास्त्र मन में हैं, बुद्धि में हैं। क्योंकि 'सारे शब्द बुद्धि में हैं। तो शास्त्र कहां हो सकते हैं! मुझमें कोई शास्त्र नहीं। कुरान मानते हो कि पुरान मानते हो, वेद मानते हो कि बाइबिल मानते हो, सब मन का ही खेल है। जहां तक शब्द जाते हैं, वहां तक मन है। जहां शब्द नहीं जाते, केवल निशब्दता जाती है, वहीं से तुम शुरू हुए। जहां तक शब्द हैं, वहां तक लेप, वहा तक तुम निरंजन नहीं। शब्दों कैसा पकड़ा है!
किसी से पूछो, आप कौन हैं? वह कहते हैं, मैं मुसलमान हूं, मैं हिंदू हूं मैं जैन, मैं बौद्ध, मैं ईसाई। शब्दों ने कैसा पकड़ा है! कौन ईसाई है, कौन हिंदू है, कौन मुसलमान है! बच्चा जब पैदा होता है तो न हिंदू होता है, न मुसलमान होता है, न ईसाई होता है। हम उसे सिखाते, संस्कारित करते, उसे सब भांति पिलाते घोंट - घोंट कर जिस दिन से हम उसको अपने हाथ में पाते हैं, उसी दिन से हिंदू या मुसलमान बनाने में लग जाते हैं। निश्चित ही निरंतर के संस्कार से एक दिन वह भी दोहराने लगता है, मैं हिंदू । मानने लगता है, मैं हिंदू । तुमने उस व्यक्ति को बड़ा संकीर्ण कर दिया। आत्मा कहां हिंदू कहां मुसलमान! मंदिर-मस्जिद सब सीमाएं हैं, आत्मा असीम। आत्मा का कोई शास्त्र नहीं। आत्मा के पास कोई शब्द नहीं। आत्मा निःशब्द है, निर्विचार है, निर्विकार है ।
मत्स्वरूपे निरंजने गतद्वंद्वस्य मे सदा ।
जहां तक शब्द जाते हैं, वहा तक द्वंद्व है। तुम ऐसा कोई शब्द नहीं खोज सकते जिसका विपरीत शब्द न हो। शब्द तो द्वंद्व से ही भरा है। तुमने कहा किसी को सुंदर तो तुम्हें किसी को असुंदर कहना ही पड़ेगा। तुम यह तो न कर सकोगे कि तुम कहो कि मुझे सभी सुंदर दिखायी पड़ते हैं। अगर सभी सुंदर दिखायी पड़ते हैं तो सुंदर शब्द का कोई अर्थ नहीं रहा, अर्थहीन हो गया। तुम्हें असुंदर दिखायी पड़ता हो, तो ही सुंदर दिखायी पड़ सकता है। कुरूप को बिना स्वीकार किये सुंदर का कोई बोध नहीं हो सकता। तुमने कहा, यह आदमी महात्मा है, तुम चक्कर में पड़ गये। क्योंकि महात्मा कहने का मतलब ही यह हुआ कि तुम किसी को हीन - आत्मा कहोगे । बिना हीन - आत्मा कहे तुम किसी को महात्मा नहीं कह सकते। महात्मा का तो मतलब ही हुआ कि तुमने श्रेष्ठ किसी को। तो तुमने किसी को अश्रेष्ठ कह दिया। भेद पैदा हो गया। अच्छा कहा, बुरा हो गया। अच्छे में बुरा समाया है। ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
सभी शब्द द्वंद्वग्रस्त हैं। शब्द के भीतर द्वंद्व से पार होने का कोई उपाय नहीं । तुम यह कह सकोगे कि मुझे तो सभी में भगवान दिखायी पड़ता है। अगर सभी में भगवान दिखायी पड़ता है तो कोई बात ही कहने की न रही। जब तक तुम्हें किन्हीं में शैतान दिखायी पड़ता है तभी त किसी में भगवान दिखायी पड़ सकता है। नहीं तो कोई अर्थ ही नहीं रहा, बात ही व्यर्थ हो गयी। अगर