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में मिलाओ तो मिल जाता है। तुम जल को तेल में मिलाओ तो नहीं मिलता है। तुमने अगर तेल भरी कटोरी में जल डाल दिया तो पास-पास हो जाएगा, जल और तेल बहुत पास-पास हो जाएगा, दोनों की सीमाएं करीब -करीब एक होती हुई मालूम पड़ेगी, फिर भी जल और तेल अलग-अलग बने रहते हैं। ऐसा ही चैतन्य पदार्थ से अलग-अलग बना रहता। कितना ही मेल हो जाए, लेप नहीं होता।
मत्स्वरूपे निरंजने। 'कहां देह है और कहां इंद्रियां हैं?'
जनक कह रहे हैं, खड़ा हूं आंख के पीछे, लेकिन मैं आंख नहीं। देखनेवाली आंख नहीं है, आंख तो केवल झरोखा है, खिड़की है, वातायन है, जिस पर खड़े होकर कोई देख रहा है। सुननेवाला कान नहीं है, कान तो झरोखा है, जिसके पास खड़े होकर कोई सुन रहा है। जब मैं अपने हाथ से तुम्हें छूऊं, तो हाथ असली छूनेवाला नहीं है। नहीं तो मुर्दा हाथ भी छू सकता था। मुर्दा आंख भी तुम्हारी तरफ देख सकती है, लेकिन फिर भी देख नहीं पाएगी, क्योंकि पीछे जो खड़ा था वह विदा हो गया है। असली ऊर्जा जा चुकी। वह जो असली ऊर्जा है, वह निरंजन है।
'और अब कहां इंद्रिया, कहां मन, कहां शून्य?'
और अपूर्व बात कहते हैं कि मन तो मैं हूं ही नहीं समाधि में जो शून्य का अनुभव होता है, वह भी मैं नहीं हूं। क्योंकि कोई अनुभव मैं नहीं हूं।
इसे थोड़ा समझना, थोड़ा बारीक है। जो भी तुम्हें अनुभव में आ जाता है, उससे तुम अलग हो गये। इसे सूत्र समझो। इसे अंतर्जीवन का गणित समझो। जो तुम्हारे अनुभव में आ गया वह तुम न रहे। जो तुमने देख लिया, तुम उससे अलग हो गये। जो दृश्य बन गया, वह द्रष्टा न रहा। तो तुमने अगर देखा कि भीतर खूब प्रकाश हो रहा है, तो उस प्रकाश से तुम अलग हो गये, तुम देखनेवाले हो। तुमने भीतर देखा कि खूब अमृत की धार बह रही है, तुम इस अमृत से भी अलग हो गये। तुम देखनेवाले हो। तुमने भीतर देखा, सब शून्य हो गया न कोई विचार, न कोई तरंग, न कोई भाव, अनंत शांति विराजमान हो गयी, तो तुम इस शांति से भी अलग हो गये। तुम तो इस शांति को जानने वाले हो। इसलिए न तो मैं मन हूं, न शून्य हूं; सभी चीजें जो जानी जाती हैं, उनसे मैं अलग हो गया। मैं आकाश भी नहीं हूँ और आकाश का अभाव भी नहीं हां
मत्स्वरूपे निरंजने। मैं तो निरंजन हूं।
'सदा वंद्वरहित मुझको कहां शास्त्र, कहां आत्म-विज्ञान है, कहा विषयरहित मन है, कहां तृप्ति है और कहां तृष्णा का अभाव है?'
क्व शास्त्रं क्वात्मविज्ञान क्व वा निर्विषय मनः। क्व तृप्तिः क्व वितृष्णत्वं गतद्वंद्वस्य मे सदा! गतदवंदवस्य मे सदा।