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तुम कहते हो, 'कभी-कभी शिखर पर होता हूं।'
जब तुम शिखर पर होते हो, कुछ शांति मिलती है, कुछ आनंद मिलता, कुछ पुलक समाती, उत्सव होता भीतर, तब तम उस उत्सव के साथ तादात्म्य कर लेते हो। तब तम सोचते हो, मैं उत्सव। तब तुम सोचते हो, मैं आनंद। बस वहीं चूक हो गयी। साक्षी बने रही। होने दो शिखर, उठने दो शिखर, गौरीशंकर बनने दो, उड़ा ऊंचाई आ जाए, लेकिन तुम देखते रहो दूर खड़े, जुड़ मत जाओ, यह मत कहो कि मैं आनंद। इतना ही कहो, आनंद को देख रहा हूं, आनंद हो रहा है, मैं देखनेवाला, मैं आनंद नहीं। फिर थोड़ी देर में तुम पाओगे कि शिखर गया और घाटी आयी। दिन गया, रात आयी। तब भी जानते रहो कि मैं विषाद नहीं। देखता हूं विषाद है दुख है, पीड़ा है, मैं दूर खड़ा द्रष्टामात्र। सुख को भी देखो, दुख को भी देखो। जब तुम देखनेवाले हो जाओगे तो कैसा शिखर, कैसी घाटी! फिर कैसी विजय और कैसी हार! नहीं तो मन नयी-नयी चालें चलता है।
नाशाद किसे कहते हैं और शाद किसे मजबूर किसे कहते हैं आजाद किसे एक दिल है कि सौ भेष बदलता है 'फिराक'
बरबाद किसे कहते हैं आबाद किसे एक दिल है कि सौ भेष बदलता है 'फिराक-स्व ही मन है, नयी-नयी भंगिमाओं में प्रगट होता है। कभी शिखर पर, कभी घाटी में। जो शिखर पर, वही घाटी में। वह कुछ भिन्न नहीं है। तुम जब शिखर पर अपने को अनुभव करते हो तब बड़े प्रभावित हो जाते हो कि अहा, पहुंच गये बस जहां तुमने कहा अहा, पहुंच गये, वहीं से उतार शुरू हो गया, गिनती शुरू हो गयी। कहो ही मत कि अहा, पहुंच गये तो फिर तुम कभी चूक न सकोगे। पकड़ो मत, तो कुछ छुड़ाया न जाएगा। दूर खड़े तटस्थ देखते रहो।
अब दुबारा जब सुख की यह घड़ी आए और ध्यान रखना, शुरू करना सुख की घड़ी से। दुख की घड़ी से शुरू मत करना। दुख की घड़ी से तो तुम शुरू करना चाहोगे। तुम कहोगे, तो फिर ठीक, अब जब घाटी आएगी और विषाद घेरेगा और अंधेरी रात पकड़ लेगी, तब मैं कहूंग मैं द्रष्टा। मैं दूर खड़ा। दुख में तो सभी दूर खड़े होना चाहते हैं, वह कोई बड़ी कुशलता की बात नहीं। दुख में कौन जुड़ना चाहता है! दुख में तो तुम्हारा मन ही तुमसे कहता है कि हट जाओ। नहीं, दुख से शुरू मत करना। दुख में तो शुरू किया तो कोई सार न होगा। जब सुख की घड़ी आए और सब तरफ कमल खिल जाएं और चांद ऊपर खिला हो और सब तरफ रस ही रस बहता हो, तब एक छलांग लगाकर बाहर हो जाना-कहना, मैं सुख नहीं, मैं सिर्फ द्रष्टा हूं।
अगर तुम सुख में जीते, तो दुख में भी जीत जाओगे। अगर तुमने दुख से कोशिश शुरू की, तो तुम कभी न जीतोगे। क्योंकि दुख से तो सहज ही मन अलग होना चाहता है। उसमें कुछ साधना नहीं है। उसमें कुछ जतन नहीं है। कोई गुणवत्ता नहीं है। कांटे से कौन नहीं छूटना चाहता! कांटा