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है। इत्यलम्-दि एंड।
आत्मा में विश्रांत हुए मुझको अब न तो धर्म की कथा में कोई रुचि है न अर्थ की कथा में कुछ रुचि है, न काम की कथा में कुछ रुचि है। जो आदमी काम की कथा में रुचि लेता है, वह बताता है कि उसका शरीर अभी कामातुर है। जो आदमी धन की कथा में रुचि लेता है, वह बताता है कि उसका मन अभी धनातुर है। और जो आदमी धर्म की कथा में रुचि लेता है, उसका मन बताता कि उसके प्राण मोक्ष पाने के लिए, परमात्मा पाने के लिए उत्सुक हैं, जिज्ञासु हैं।
जनक कहते हैं, मैंने पा लिया। तुमने कहा और मैंने पा लिया। तुमने पुकारा और मैंने सुन लिया। तुमने चुनौती दी और मैं जाग गया।
अल त्रिवर्गकथया.....| अर्थ, काम, मोक्ष, धर्म इत्यादि की सब कथाएं समाप्त हो गयीं। मैं पूर्ण हुआ अल विज्ञानकथया विश्रांतस्य ममात्मनि।
योग की कथा भी अब व्यर्थ है और विज्ञान की भी। विज्ञान का अर्थ होता है, बाहर का योग। योग का अर्थ होता है, भीतर का विज्ञान। अब तो बाहर- भीतर का भेद नहीं रहा, इसलिए सब बातें व्यर्थ हो गयीं। अब शब्द का कोई प्रयोजन नहीं है। शब्द का काम पूरा हो गया। एक काटा लग जाता है पैर में, तुम दूसरे काटे से उस काटे को निकाल लेते। अब तो दोनों काटे बेकार हो गये। अब तुम दोनों को फेंक देते हो।
जनक यह कह रहे हैं कि मैंने शब्दों के बहुत-बहुत काटे जन्मों-जन्मों में लगा रखे थे, सदगुरु की कृपा से, तुम्हारे शब्दों से तुमने मेरे काटे निकाल लिये अब तो तुम्हारे शब्दों की भी कोई जरूरत नहीं है। अब तो बात ही खतम हो गयी। अलम। आ गया अंत।
वह मौजे -हवादिस का थपेड़ा न रहा कश्ती वह हुई गर्क तो बेड़ा न रहा सारे झगड़े थे जिंदगानी के ' अनीस' जब हम न रहे तो कुछ बखेड़ा न रहा अलम्। हरि ओम तत्सत्।
आज इतना ही।