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में विराजमान कर दिया। अब मैं चौंककर देखता हूं कि अब धर्म की कहा जरूरत है धर्म क्या है यही मेरी समझ में अब न आएगा। धर्म की तो तब जरूरत होती है जब अधर्म होता है। और काम की क्या जरूरत? क्योंकि कामवासना तो तभी पैदा होती है जब तक तुम्हें अपनी महिमा का स्वाद नहीं
पा है, तब तक तुम दूसरे के पीछे जा रहे हो। काम का अर्थ, किसी और से मिल जाएगा सुख। पकड़े किसी का आंचल चले जा रहे। किसी का पल्लू पकड़े हो कि शायद इससे सुख मिल जाए, शायद उससे सुख मिल जाए। काम का अर्थ है, भिखारीपन। कोई दे देगा सुख, कोई स्त्री, कोई पुरुष। कोई प्रियजन सुख दे देगा-बेटा, बेटी, पति, पत्नी, कोई सुख दे देगा। दूसरे से काश सुख मिलता होता तो सभी को मिल गया होता। सुख मिलता स्वयं से। स्वयं की महिमा में विराजमान होने से।
जनक ने कहा कि धन्य है, मुझे बिठा दिया मेरे सिंहासन पर। अब मेरी समझ में यह नहीं आता कि लोग कामवासना से भरते क्यों हैं? जिनको स्वयं का स्वाद आ गया, जिसने भीतर की रति जान ली-आत्मरति, जिसने अंतर्संभोग जान लिया, जो अपने से ही मिल गया, अब उसको और कोई रति, और कोई रस, किसी और के आगे भिक्षापात्र फैलाने की जरूरत न रही। अब तो उसे भरोसा भी न आएगा कि लोग कैसे पागल हैं, जो तुम्हारे भीतर है तुम उसके लिए बाहर हाथ फैलाए खड़े हो! जिसके झरने तुम्हारे भीतर बह रहे हैं, तुम उसके लिए भिक्षापात्र लिये दर-दर घूम रहे हो, द्वार-द्वार धक्के खा रहे हो और जगह-जगह कहा जा रहा है, आगे बढ़ो। क्योंकि तुम जिनके पास सोचते हो है, उनके पास भी कहां है! वह किसी दूसरे के सामने हाथ फैलाए खडे हैं।
एक भिखमंगा एक मारवाडी की दूकान के सामने भीख मांग रहा था। उसने जोर से कहा कि मालिक कुछ मिल जाए। उस मारवाड़ी ने कहा, घर में कोई भी नहीं है। वह भिखमंगा भी जिद्दी था, उसने कहा कि हम किसी को थोड़े ही मांग रहे हैं। कि तुम्हारी पत्नी को मांग रहे हैं कि तुम्हारे बेटे को मांग रहे हैं, अरे भीख मांग रहे हैं! कोई न हो न हो! कुछ मिल जाए। मारवाड़ी भी कोई ऐसे भिखमंगों से हार जाएं तो कभी के खत्म ही हो जाते। मारवाड़ी ने कहा कि न कोई घर में है, न कुछ देने को घर में है, अपना रास्ता लो, आगे बढ़ी। तो भिखमंगा भी हद्द था, उसने कहा, तो फिर भीतर बैठे तुम क्या कर रहे हो? तुम भी मेरे साथ हो लो। जो मिलेगा, आधा-आधा बांट कर खा लेंगे। अरे, जब कुछ है ही नहीं, तो भीतर क्या कर रहे हो?
मगर हालत यही है, जिनके सामने तुम मांगने गये हो उनके पास भी कुछ नहीं है। किसके पास कुछ है? सब तरफ तुम्हें उदास, मुर्दा चेहरे दिखायी पड़ेंगे। बुझी आंखें, बुझे हृदय, बुझे प्राण। राख ही राख! कोई फूल खिलते दिखायी नहीं पड़ते। न कोई वीणा बजती है, न कोई पायल। कोई नृत्य नहीं, कोई गीत नहीं। बिना गीत और नृत्य के जन्मे तुम कैसे जान पाओगे कि परमात्मा है? परमात्मा कोई तर्क थोड़े ही है, कोई सिद्धात थोड़े ही है। परमात्मा तो उनकी समझ में आता है, जिनके भीतर गीत जन्मता है। स्वयं की महिमा में जो प्रतिष्ठित हो जाते हैं। जो मस्त हो जाते हैं, जो अपनी ही शराब में डोल जाते हैं। वही कह पाते हैं कि परमात्मा है। जो जान पाते हैं कि मैं हूं, वही कह पाते हैं कि परमात्मा है। जिन्होंने स्वयं को भी नहीं जाना, वे क्या परमात्मा को जानेंगे। और जिन्होंने स्वयं