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शरीर खुद तो तुम्हारी अर्थी है। इसी पर चढ़े - चढ़े तो तुम मौत की तरफ जा रहे हो। यही शरीर तो तुम्हें एक दिन ले जाएगा चिता पर। इस मुर्दा शरीर के भीतर तुम जीवित पड़े हो, मगर तुम्हें सुनना नहीं आया। जनक ने आवाज सुन ली। उसने कहा कि धन्य है! मैं किन शब्दों में धन्यवाद दूं?
'अपनी महिमा में स्थित हुए मुझको। '
एक क्षण में तुमने मुझे मेरी महिमा में स्थित कर दिया। ऐसा नहीं कि तुमने मुझे रास्ता बताया कि कैसे महिमा में स्थित हो जाऊं। तुमने रास्ता नहीं दिया, तुमने मार्ग नहीं दिया, तुमने मंजिल दे दी। अब कैसा धर्म ? अब कैसा अर्थ ? अब कैसा काम ? कहां द्वैत है? कहां अद्वैत है ? चकितभाव से यह चकितभाव के उदघोषण हैं – इसलिए बार-बार यह शब्द आएगा।
क्व धर्मः ।
कहा है धर्म?
क्व च वा काम: ?
कहां गयी वासनाएं ? कहां गयीं महत्वाकांक्षाएं?
क्व चार्थ?
कहां गयी अर्थ की प्रबल दौड़ ? आपाधापी र इतना कमा लूं र ऐसा कमा लूं र यह हो जाऊं, इस पद पर बैठ जाऊं। इतना ही नहीं
क्व विवेकिता ?
जिस विवेक को बहुत मूल्य देता था, विचार को समझ को, वह समझ भी अब किसी काम की न रही। वह समझ भी अंधे के हाथ की लकड़ी थी। आंख खुल गयी, लकड़ी की क्या जरूरत रही। हिंदू शास्त्र कहते हैं, 'उत्तीर्णे तु यते पारे नौकाया किं प्रयोजनम्।' जब पार हो गये नदी, तब फिर नौका की क्या जरूरत? अंधा आदमी लकड़ी का सहारा लेकर टटोल-टटोलकर चलता है। लंगड़ा आदमी बैसाखी के सहारे चलता है।
जीसस के जीवन में एक उल्लेख है, एक लंगड़ा आया जो बैसाखी पर चलता आया। और कहते हैं, जीसस ने उसे छुआ और लंगड़ा स्वस्थ हो गया। जब वह जाने लगा तो भी वह अपनी बैसाखी साथ ले जाने लगा, तो जीसस ने कहा, अरे पागल, बैसाखी तो छोड़ ! अब यह बैसाखी कहां ले जा रहा है? लोग हंसेंगे।
पुरानी आदत । न- मालूम कितने वर्षों से बैसाखी लेकर चलता था, आज ठीक भी हो गया तो भी बैसाखी लिये जा रहा है।
जनक कहने लगे-कहां बैसाखिया! ये सब जो 'क्व धर्म: ?' धर्म की क्या जरूरत है दुनिया में? लाओत्सु ने कहा है, एक समय ऐसा था जब लोग धार्मिक थे, इतने धार्मिक थे कि धर्म का किसी को पता ही न था। जब अधर्म होता है, तब धर्म का पता होता है। लाओत्सु कहता है, जब लोग अधार्मिक हो गये, तब धर्म पैदा हुआ। तब धर्मगुरु आए ।
एक हिंदू संन्यासी मेरे घर मेहमान थे और मुझसे कहने लगे, यह भारत - भूमि बड़ी धार्मिक