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कहती है समाप्त होता है सतरंगे बादल का मेला। बीत चली संध्या की बेला।
अंतरिक्ष में आकुल, आतुर कभी इधर उड़, कभी उधर उड़ पंथ नीड़ का खोज रहा है पिछड़ा पंछी एक अकेला। बीत चली संध्या की बेला।
कहती है समाप्त होता है सतरंगे बादल का मेला। पंथ नीड़ का खोज रहा है पिछड़ा पंछी एक अकेला। बीत चली संध्या की बेला।
एक-एक पल सांझ करीब आती जाती है, सूरज डूबता जाता है। जितनी देर करोगे, उतनी कठिनाई हो जाएगी, उतना अंधेरा हो जाएगा। नीड़ का पथ खोजना कठिन हो जाएगा। थोड़ी रोशनी शेष है, तब उपाय कर लो। थोड़ा बल शेष है, तब उपाय कर लो। थोड़ा जीवन शेष है, तब खोज लो मंदिर। तब थोड़ी पूजा, तब थोड़ा ध्यान कर लो।
और न जुटा पाओ साहस तो मैं तुमसे कहता हूं बिना साहस जुटाए उतर जाओ क्योंकि कहीं वह भी एक बहाना न हो कि जब साहस जुटेगा, तब। कि जब पूरा साहस जुटेगा तब। उतर ही जाओ। सब भयों के बावजूद। सब तरह के डर हैं, ठीक, उतर ही जाओ। जिंदगी में हजार काम तुमने किये हैं बिना साहस जुटाए। विवाह किया था तब साहस जुटाया था? उतर गये, कि ठीक है, जो होगा देखेंगे।
और जो देखा, अब दुबारा साहस न कर सकोगे। किस बात के लिए तुम साहस जुटा पाए? यहां सब तो अनजाना है, सब तो अपरिचित है। अपरिचित में ही उतरना पड़ता है। जाना-माना तो कुछ भी नहीं है। नक्शे कहां हैं? मार्गदर्शक कहां हैं?
जिंदगी कोई पिटी-पिटायी लकीरें थोड़े ही है। यहां प्रतिपल जाना पड़ता अज्ञात में, अपरिचित में। ऐसे ही संन्यास में भी चले जाओ। जन्म लिया था तब सोचा था कि उतरें कि न उतरें? मरोगे, तब कोई तुमसे पूछेगा भी तो नहीं कि मरना है कि नहीं? जन्म हो गया, मृत्यु हो गयी, प्रेम हो गया, विवाह हो गया, हारे, जीते, सफल- असफल हुए, सब कर लिया, साहस कहां है?
जैसे यह सब हो गया, ऐसे ही ध्यान और प्रार्थना को भी हो जाने दो। ऐसे ही संन्यास को भी हो जाने दो। कहीं ऐसा न हो कि साहस की बात उठाकर तुम सिर्फ अपने लिए एक अड़चन खड़ी