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पहली तो बात, व्यर्थ होता तो आदत जाती । तुम्हारे लिए व्यर्थ नहीं है। छूट
जिनके लिए व्यर्थ है उनकी तो आदत छूट गयी। तुम ऐसा समझो कि कचडे को संभालकर तिजोड़ी में रख रहे हो और मैं तुम्हें पकड़ लूं और कहूं कि यह क्या कर रहे हो? तो तुम कहो, मालूम तो है कि यह कचड़ा है, लेकिन आदत नहीं छूटती । ऐसा होगा ? जानते हुए कचडा तिजोरी में रखोगे संभाल कर ? कचडा जानते हुए रखोगे संभाल कर ? थोड़ी भूल हो रही है।
बुद्धपुरुष कहते हैं, कचडा है। तुमने उनकी बात सुन ली, संकोचवश उनकी बात इंकार भी नहीं करते। बुद्धपुरुष कहते हैं, ठीक ही कहते होंगे, सब शास्त्र कहते हैं, तो ठीक ही कहते होंगे; कचडा है। लेकिन तुम जानते हो कि बात ठीक है नहीं, है तो हीरा जवाहरात! अब तुम्हारे भीतर एक द्वंद्व पैदा हुआ। एक तुम्हारा जानना है और एक बुद्धपुरुषों से सुनी हुई बात है स्वभावतः अंतिम परिणाम में तुम जीतोगे, बुद्धपुरुष नहीं जीतेंगे। क्योंकि तुम्हारे भीतर तुम्हीं गहरे में हो, बुद्धपुरुष तो ऊपर-ऊपर हैं। ऊपर-ऊपर से कहते हो, सब कचडा है। और भीतर - भीतर जानते हो कि कहां ये बुद्धपुरुष, बुद्धओं की बातों में मत पड़ जाना। दे मत बैठना कहीं! संभाल कर रख लो।
तुम्हारी दुविधा यह है कि न तुम बुद्धपुरुषों को इंकार कर पाते इतना भी साहस नहीं, इतनी भी हिम्मत नहीं। शायद किसी गहरे तल पर तुम्हें यह भी समझ में आता है कि वे ठीक ही कह रहे हैं, क्योंकि ठीक तो वे कह ही रहे हैं। इसलिए तुम कितने ही अंधेरे में दबे हो लेकिन फिर भी कहीं भनक पड़ती है कि कुछ बात तो ठीक मालूम पड़ती है। फिर चाहे बात ठीक न भी मालूम पड़ती हो, वासनाओं में चित्त डूबा है। तो भी बुद्धपुरुषों की शांति उनका आनंद उनका रस देखकर तुम्हें लगता है, अगर ये गलत कहते होते तो इनके जीवन में गलत का परिणाम होना चाहिए था। परिणाम तो सही के दिखायी पड़ रहे हैं। और वृक्ष तो फल से जाना जाता न! तो बुद्धपुरुषों में जब तुम आनंद के फल लगे देखते हो, सच्चिदानंद के झरने बहते देखते हो, तो तुम्हें लगता है, ठीक तो वही कहते होंगे। हम कैसे ठीक हो सकते हैं? क्योंकि सिवाय जहर के कुछ हाथ लगता नहीं । सिवाय जर्क के कहीं पहुंचना होता नहीं । हीरे-जवाहरात अगर हमारे सच होते तो हम स्वर्ग में होते हैं तो हम नर्क में । यह ठीक ही कहते होंगे। यह बात भी कुछ जंचती लगती है। और फिर भी तुम्हारा अपना जो अनुभव नहीं है - यह बुद्धपुरुषों का अनुभव तुम्हारी अपनी प्रतीति तो नहीं है तुम इसे मान कैसे लो! तुम विश्वास कर लेते हो। बस विश्वास से अडचन खडी होती है। यह अनुभव बनना चाहिए।
तुम मानने की जल्दी मत करो। तुम्हें जो कचडा नही दिखायी पड़ता, तुम कहो, अभी मुझे दिखायी नहीं पड़ता। आप कहते हैं, ठीक ही कहते होंगे, कोई कारण नहीं कि आपको गलत कहूं क्योंकि आप जो जानते हैं मैं नहीं जानता; आप कहते हैं, ठीक ही कहते होंगे, लेकिन जहां तक मेरी समझ अभी काम करती है वहा तक मुझे ये हीरे-जवाहरात मालूम पड़ते हैं। इतनी ईमानदारी अगर तुम बरतो तो जल्दी ही तुम्हारे जीवन में क्रांति हो जाएगी । उधार ज्ञान को अपना मत समझो। बासी बातों