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है, न मैं तुम्हारे बिना हो सकता, न तुम मेरे बिना हो सकते। ठीक कहा है, क्योंकि मैं के बिना तू नहीं हो सकता। और तू के बिना भी मैं नहीं हो सकता। तो भक्त मैं को डुबाता है। एक ऐसी घड़ी आती है, भक्त सौ प्रतिशत था, घटते घटते घटते घटते शून्य प्रतिशत हो जाता है। रोज-रोज परमात्मा बढ़ने लगता है- एक प्रतिशत, पचास प्रतिशत, सत्तर प्रतिशत, नब्बे, निन्यानबे प्रतिशत- निन्यानबे प्रतिशत परमात्मा होता है, भक्त एक प्रतिशत, तब तक दोनों होते हैं। जैसे ही भक्त शून्य हुआ और परमात्मा पूर्ण हुआ भक्त भी गया भगवान भी गया। प्रेम गली अति सीकरी तामें दो न समाए! यह तो सच है। कबीर ठीक कहते हैं कि प्रेम की गली अति संकरी है, उसमें दो नहीं समाते ।
मैं
कहता हूं प्रेम की गली इतनी संकरी है कि उसमें एक भी नहीं समाता क्योंकि जहां एक समा गया, वहां दो भी समा सकते हैं। एक भी नहीं समाए तो ही दो नहीं समाते। एक का भी क्या अर्थ होगा अगर दो न बचें। दो के बिना एक नहीं हो सकता है। दो हों तो ही एक में कुछ अर्थ है । द्वैत हो तो अद्वैत में अर्थ है।
लेकिन भक्त की आंख बहिर्मुखी है। भक्त जो है बहिर्मुखी है। इसलिए पूजा करता, अर्चन करता, दीप जलाता, नाचता, गीत गाता, मूर्ति सजाता। बाहर है उसका भगवान । और स्वयं को डुबा है। इसलिए भक्त के जीवन में जब महोत्सव घटता है तो वह नाचता । पद घुंघरू बांध मीरा नाच रे। वह मगन होकर नाचता । सब विस्मरण करके नाचता । मदमस्त होकर नाचता ।
ज्ञानी के जीवन में घटना घटती है यही, शून्य की, या पूर्ण की, लेकिन दूसरे ढंग से घटती है। ज्ञानी तू से अपने को मुक्त करता है। इसीलिए तो महावीर कहते हैं, कैसा परमात्मा ! कोई परमात्मा नहीं है। अप्पा सो परमप्पा । आत्मा ही परमात्मा है। और कैसा परमात्मा ! मैं ही अपने परिपूर्ण शुद्धता में परमात्मा हूं। इसलिए ज्ञानी कहता है : अहं ब्रह्मास्मि । अनलहक। मुझसे अलग और कौन ? तो ज्ञानी तू को घटाता जाता है, घटाता जाता है, घटाता जाता है, एक ऐसी घड़ी आती है कि तू बिलकुल शून्य हो जाता है, मैं ही बचता। लेकिन तब मैं न बच सकेगा। मैं को बचाने के लिए तू थोड़ा चाहिए। जिस दिन मैं अकेला बचा और तू शून्य हो गया, उसी क्षण मैं भी तिरोहित हो जाता है। वे दोनों साथ ही चलते हैं। और जब मैं तिरोहित होता है तो एक अपूर्व उत्सव का जन्म होता है। लेकिन ज्ञानी नाचेगा नहीं। यह उत्सव इतने भीतर घटता है और ज्ञानी अंतर्मुखी है।
ये दो ही तो प्रकार हैं मनुष्य की चेतना के। बहिर्मुखता, अंतर्मुखता । या तो भीतर चलो या बाहर जाओ। किसी भी दिशा में इतने चले जाओ कि बचो न, पहुंच जाओगे| अगर चलते ही गये ह और अपने को खोते चले गये, तो भी पहुंच जाओगे चलते ही गये भीतर और एक ऐसी घड़ी आ गयी कि अपने को खो दिया, तो भी पहुंच जाओगे किस दिशा में चले, भेद नहीं पड़ता, क्योंकि सभी दिशाओं में परमात्मा है। बाहर भी वही है, भीतर भी वही है। बाहर और भीतर कामचलाऊ शब्द हैं। वही है। बाहर भी उसमें है, भीतर भी उसमें है, ऐसा कहना ज्यादा उचित है। बाहर - भीतर उसके ही दो पहलू हैं।