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विचार से थोड़े ही कोई यात्रा होती है। मात्र विचार से थोड़े ही कोई यात्रा होती है, अस्तित्व होना चाहिए। अस्तित्ववान होना चाहिए । जो अंतस में है, वह आचरण में। जो बाहर है वह भीतर, जो भीतर है वह बाहर। काश, तुम सम्यक - चारिव्य की आड़ी डंडियां इन दो डंडों के बीच में लगा सको तो सीडी बन जाए ! सम्यक - शान और सम्यक दर्शन के दो खड़े डंडों में सम्यक - चारिन्य की आड़ी सीढ़िया लगाने सेनसैनी तैयार हो सकती है। और फिर एक - एक कदम उठाकर तुम उस परम मंजिल को भी पा सकते हो।
चरितार्थस्ययोगिनः ।
जिसके जीवन में, जिसके अस्तित्व में सरलता समाविष्ट हो गयी है। फर्क समझना ।
तुम ऊपर से आरोपित करके भी सज्जन बन सकते हो। ऐसे ही तो तुम्हारे सब सज्जन हैं। इनके अस्तित्व में सरलता नहीं, अस्तित्व में तो बड़ी जटिलता है। बड़ी चालबाजी है। अस्तित्व में तो बड़ा गणित है, हिसाब है। अस्तित्व इनका निष्कपट नहीं है, आर्जव नहीं है इनके अस्तित्व में। मैं एक यात्रा में था और एक बड़े स्टेशन पर एक साधु को लोग छोड़ने आए। वह साधु ने केवल टाट लपेटा हुआ था| और कुछ भी न था, और एक टोकरी थी। टोकरी में फल इत्यादि रख गये थे लोग। बड़ी भीड़ आयी थी उन्हें भेजने। जिस कंपार्टमेंट में मैं था, उसी में उनको भी बिठा गये थे, हम दोनों ही थे।
जब ट्रेन चली और मैं आख बंद करके लेट रहा तो उन साधु ने जल्दी से अपनी टोकरी देखी, फल गिने। मैं देखता रहा उनको थोड़ी-थोड़ी खोल आख कि क्या कर रहे हैं? जल्दी से फल गिने । और फलों के नीचे नोट छिपाए हुए थे, वे नोट भी गिने । जब वह नोट गिन रहे थे तो आख खोलकर मैं बैठ गया, उन्होंने जल्दी से नोट छिपा लिए, मैं फिर लेट गया। जब मैं फिर लेट गया, उन्होंने समझा कि मैं फिर सो गया, तब उन्होंने फिर अपने नोट गिनने शुरू किये। मैं फिर उठकर बैठ गया, मैं कहा, आप बेफिक्री से गिनो, क्योंकि नोट गिनने में कोई पाप ही नहीं है। और फिर आपके ही गि रहे हो, कोई मेरे तो आप गिन भी नहीं रहे हो, इसमें इतनी बेचैनी क्या है? इसको छिपा क्यों रहे हैं? वह बड़े बेचैन हो गये, पसीना-पसीना हो गये। टाट ओढ़े हुए हैं
फिर उनसे मेरी बातचीत हुई। भोपाल जाते थे वह। मुझसे पूछा कि यह ट्रेन भोपाल कब पहुंचेगी मैंने कहा यह छ: बजे पहुंचेगी, आप बिलकुल निश्चित सोए । बीच-बीच में आप चिंता मत करना, क्योंकि यह डिब्बा वहीं कट जाएगा। मैं भी भोपाल चल रहा हू र तो आप घबडाएं नहीं। मगर बारह बजे मैंने देखा कि वह खिड़की से खोलकर, कोई स्टेशन आयी है, पूछ रहे हैं कि भोपाल कितनी दूर ? उन्हें मुझ पर भरोसा नहीं आया कि यह आदमी कुछ अजीब-सा मालूम पड़ता है। जब मैं नोट हूं एकदम बैठ जाता है और मुझे नोट नहीं गिनने देता। पता नहीं, मजाक कर रहा हो, कि झूठ कह रहा हो, कि सच कह रहा यह डिब्बा कटे कि न कटे ! जब उन्हें मैंने तीन बजे फिर एक स्टेशन पर. तो मैंने कहा देखो, न तुम खुद सोते हो न मुझे सोने देते हो। तुम साधु आदमी तुम इतनी-सी बात का भरोसा नहीं कर सकते! और तुम दो दफे पूछ भी चुके और लोगों ने तुम्हें बता दिया छ