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अर्थ होता है, केंद्रण। जब तुम किसी चीज पर एकाग्रता करते हो तो जिस चीज पर एकाग्रता करते हो, वह तुमसे बाहर होती है। तो सब एकाग्रता बहिर्गामी है, सांसारिक है। और जब तुम्हारे चित्त का कहीं भी कोई आवागमन नहीं होता, कहीं जा ही नहीं रहे, बहिर्गमन रुक गया और अपने केंद्र पर बैठ गये सेंटरिंग, केंदण। केंदण की अवस्था असली अवस्था है। एकाग्रता असली बात नहीं है। है असली बात। अब कहीं चित्त जाता ही नहीं। इसका ही एक उपांग उदासीनता है। जब चित्त कहीं नहीं जाता तो अब बाहर से उदासीनता हो गयी।
यह संस्कृत शब्द 'अनवधानस्य' - सर्वत्रानवधानस्य न किचिदवासना हृदि-जिसके हृदय में किंचित् भी वासना न रही, उसका सब तरह के अवधान से छुटकारा हो गया। अब उसकी आंखें कहीं भी नहीं लगी हैं।
मुक्तात्मनो वितृप्तस्य तुलना केन जायते। और ऐसी दशा ही मुक्त ही दशा है। इसकी तुलना ।
त ही दशा है। इसकी तुलना किससे करें? कैसे करें 3: यह अतुलनीय दशा है।
हम निजी घर में किरायेदार से रहते रहे दर्द दिल का बस दरो -दीवार से कहते रहे दूर तक फैला हुआ एक रेत का सैलाब-सा जिस तरफ सागर समझ जलधार से बहते रहे
यह जिसको तुम संसार कह रहे हो और बहे जा रहे हो-यह पाना, वह पाना, मिलता कभी किसी को कुछ यहां! सब मगमरीचिका है।
दूर तक फैला हुआ एक रेत का सैलाब सा जिस तरफ सागर समझ जलधार से बहते रहे
और इस सागर में, रेत के सागर में तुम छोटी सी जलधार की तरह अपने ध्यान को बहाए जा रहे हो कि यहां कहीं सागर होगा, मिल जाएगा, तृप्ति होगी, मिलन होगा। खो जाओगे इस मरुस्थल में! यहां कोई मरूदयान भी नहीं है।
हम निजी घर में किरायेदार से रहते रहे दर्द दिल का बस दरो-दीवार से कहते रहे
और तुम अपने ही घर में ऐसे रह रहे हो जैसे किरायेदार! तुम अपने मालिक हो, यह तुम्हारा मंदिर है, मगर उस तरफ ध्यान नहीं जाता। ध्यान तो बाहर भटक रहा है। यह ध्यान का पंछी तो सब जगह जा रहा है, सिर्फ भीतर नहीं आता। अनवधान का अर्थ हुआ, अब ध्यान का पंछी कहीं नहीं जाता, अपने भीतर आ गया, तुमने पहचान लिया कि हम इस घर के मालिक हैं, गुलाम नहीं। मन भटकाता है, मन हमें गुलाम बनाता है, हम मन के पार हैं। जैसे ही तुमने यह उदघोषणा की, तुम्हारी सारी बाहर की दौड़ समाप्त हो जाएगी। और ऐसी दशा ही मुक्त की दशा है।
'वासनारहित पुरुष के अतिरिक्त दूसरा कौन है जो जानता हुआ भी नहीं जानता है देखता हुआ