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ऐसे सम्हालकर रखता जैसे कोहनूर हीरा हो। बड़े -के समझाते हैं कि फेंक, पत्थर कहां ढो रहा है? यह बोझ क्यों लिये चल रहा है? यह कचरा क्यों इकट्ठा कर रहा है? छोटे बच्चे को समझ में नहीं आता कि तुम किस चीज को कचरा कह रहे हो? इन रंगीन पत्थरों को! इन अपूर्व पत्थरों को! इन सीप-शंखों को!
जब तुम्हारे भीतर का कमल खिलेगा, फिर तुम दुबारा बच्चे हो जाओगे। और अबकी बार ऐसे बच्चे होओगे जो फिर कभी का नहीं होता। यह अंतर का जन्म होगा।
गंध ले जाती बिना मांगे हवा देह जब से रातरानी हो गयी उम्र अचानक हीर हो गयी निर्धन नजर अमीर हो गयी एक दस्तूर किया तुमने प्यार मशहूर किया तुमने काच का रूप तराश दिया एक कोहनूर किया तुमने सेहरा को सागर सूखी नदी को पूर किया तुमने पिलाकर प्राणों को मदिरा नशे में चूर किया तुमने
आकांक्षा यही है यहां कि तुम नाच सको। और यह नाच कृत्रिम न हो। यह नाच हार्दिक हो। स्वस्फूर्त हो। यह नाच ऐसा न हो जैसा कि नर्तक का होता है। यह नाच ऐसा हो जैसे मीरा का था, चैतन्य का था। यह नाच कोई अभ्यास न हो, यह तुम्हारी सहज तरंग हो। तुम तली बनो, लहरी बनो, तुम मदमस्त बनो, तुम पर एक मस्ती का आलम छा जाए, इसकी चेष्टा चल रही है।
इसलिए रहस्य घटेगा नहीं। रहस्य को घटाना नहीं है, रहस्य को महारहस्य बनाना है। महारहस्य को परम आत्यंतिक रहस्य बनाना है, जो कभी हल होता ही नहीं। जो हल हो जाए, वह बात धर्म की नहीं। जिसका अंत आ जाए, वह बात सत्य की नहीं। जो चुक जाए, वह अस्तित्व नहीं। यह अस्तित्व तो चुकता नहीं।
यहां एक शिखर तुम चढ़े और सोचते थे कि बस अब आ गयी मंजिल, कि जब तुम शिखर चढ जाते हो, पाते हो और बड़ा शिखर सामने प्रतीक्षा कर रहा है। सोचते हो, चलो और थोड़ी यात्रा है, इसे और गुजार लो, लेकिन जब तुम नये शिखर पर पहुंचते हो तो और बडा शिखर नयी चुनौती बनकर खड़ा है। शिखर पर शिखर हैं और द्वार पर द्वार। और रहस्य पर रहस्य हैं। इनका अंत नहीं है। परमात्मा इन्हीं अर्थों में तो अनंत है।
धरणी पर छायी हरियाली