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सदगुरु की छाया में होने का अर्थ है, एक परम प्रेम में पड़ जाना। एक ऐसे प्रेम में, जिसका कोई निर्वचन नहीं हो सकता, जिसकी कोई व्याख्या नहीं हो सकती।
दुनिया में तीन तरह के प्रेम हैं। एक तो प्रेम है, किसी के शरीर के साथ प्रेम में पड़ जाना। वह क्षुद्रतम है। वह जल्दी ही आता और चला जाता। वह शरीर की वासना है। उसको ही काम कहो सेक्स कहो।
एक दूसरा प्रेम है, जो किसी के मन के साथ प्रेम में पड़ जाना। साधारणतः हम उसे ही प्रेम कहते हैं- दूसरे प्रेम को। वह पहले से श्रेष्ठतर है। थोड़ा गहरा है। ज्यादा देर टिकेगा। शरीर के थोड़ा पार है। थोड़ी इसमें सुगंध है काव्य की। थोड़े पंख हैं उसके पास, थोड़ा उड़ सकता है।
फिर एक तीसरा प्रेम है, किसी के साथ आत्मा में, आत्मा के साथ आत्मा का प्रेम हो जाना। फिर पूरा खुला आकाश है, विराट आकाश है। इसे हम प्रार्थना कहते हैं।
पहला काम, दूसरा प्रेम, तीसरी प्रार्थना ।
सदगुरु के पास होने का अर्थ है, प्रार्थनापूर्ण होकर बैठना। किसी की आत्मा के साथ प्रेम में पड़ गये। किसी की आत्मा ने मन को डुबा लिया, मोह लिया। किसी के रंग में रंग गये।
कि
यह तुम्हें जो मैंने गैरिक रंग दिया है यह तो केवल प्रतीक है। यह तो इस बात की खबर है तुम मेरे रंग में रंगने को राजी हुए यह तो सिर्फ ऊपर की बात है। यह तो केवल शुरुआत है। यह तो ऐसा है जैसे छोटे बच्चों को हम समझाते हैं कि आ आम का । आम से आ का क्या लेना-देना?
आ तो और हजार चीजों का भी है। लेकिन शुरुआत तो कहीं से करनी पड़ती है।
परसों ही कोई मुझसे पूछता था कि संन्यास अगर भीतर का ही लें तो ठीक नहीं? तो मैंने कहा भीतर का ले सको तब तो जरूरत ही नहीं है लेने की । भीतर का नहीं ले सकते इसीलिए तो बाहर से शुरू करना पड़ता है। भीतर का ही लेने की क्षमता हो तब तो लेने की भी जरूरत खतम हो गई। अभी लेने की जरूरत है तो उसका अर्थ ही इतना हुआ कि अभी भीतर का कुछ पता नहीं
और तुम बाहर खड़े हो । भीतर जाओगे भी तो भी बाहर से ही भीतर जाओगे। अब जो आदमी अपने घर के बाहर खड़ा है सड़क पर, उससे हम कहें कि चलो, सीढ़ियां चढ़ो। वह कहे कि हम सीधे भीतर ही पहुंच जायें तो हर्ज है? हम कहेंगे, अगर तुम भीतर ही खड़े हो तब तो पहुंचने की कोई जरूरत ही नहीं है। लेकिन अगर बाहर सड़क पर खड़े हो तो फिर बाहर से यात्रा करनी पड़ेगी।
अब जो पूछता था, भयभीत है कपड़ों से बाहर - भीतर के तो बड़े ऊंचे शब्द उपयोग कर रहा है। डरा हुआ है बाहर से। फिर जल्दी ही बात निकल आई कि परिवार, प्रियजन, गांव, बस्ती, वहां इन वस्त्रों में जाऊंगा, लोग हंसेंगे। तो मैंने कहा, वे तो बाहर हंस रहे हैं, तुम्हारा क्या बिगाड़ते हैं? तुम तो भीतर की बातें कर रहे हो। वह प्रियजन, गांव, बस्ती, वह सब तो बाहर है, तुम्हारे भीतर तो नहीं। कहा, आप ठीक कहते हैं मगर मुश्किल पड़ेगी। मुश्किल तो बाहर से आ रही है। और तुम तो भीतर खड़े हो ।
लेकिन आदमी बड़ा बेईमान है। बड़े ऊंचे तर्क खोजता है बड़ी छोटी बातें छिपाने को। तो मैंने