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बेटा है। थोड़ा समझो। तुम आज तक अपने बेटे के लिए अपनी जान देने को तैयार थे। तुम्हारा बेटा है। पढ़ाते थे, लिखाते थे, श्रम करते थे, मेहनत करते थे, बड़ी आकांक्षा करते थे, बड़ा हो, यशस्वी हो, सफल हो। और आज तम्हें अचानक एक पत्र हाथ में लग गया पुरानी संदक टटोलते हए जिससे पता चला कि बेटा तू म्हारा नहीं है, तुम्हारी पत्नी किसी के प्रेम में थी, उसका है। इसी क्षण तुम्हारा प्रेम समाप्त हो जाएगा। और यह भी हो सकता है कि पत्र झूठा हो, बेटा तुम्हारा ही हो। लेकिन तुम्हारा प्रेम इसी क्षण जैसे कपूर उड़ जाए, ऐसे उड़ जाएगा। प्रेम की तो बात दूर रही, अब तुम इस बेटे को घृणा करने लगोगे, तुम चाहोगे यह मर ही जाए तो अच्छा। यह तो एक कलंक है। अभी क्षण भर पहले यह बेटा तुम्हारा था, तो प्रेम था। अब तुम्हारा नहीं है तो प्रेम नहीं रहा। तुम्हारा प्रेम बड़ा सशर्त है। मेरा है तो प्रेम, मेरा नहीं तो प्रेम नहीं।
यह प्रेम बेटे से नहीं है, अहंकार से है। ये तुम्हारे अपने ही अहंकार की घोषणाएं हैं। मेरा है, तो प्रेम। मेरा नहीं है, तो बात गयी। यह बेटा अब तक सुंदर मालूम पड़ता था आज एक क्षण की घटना में यह तुम्हें कुरूप मालूम पड़ने लगेगा इसमें तुम सब तरह की बुराइयां देखने लगोगे।
सूफी फकीर बायजीद ने लिखा है कि एक आदमी की कुल्हाड़ी चोरी चली गयी। वह लकड़ियां काट रहा था और फिर घर के भीतर गया, कुल्हाड़ी बाहर ही छोड़ गया। कुल्हाड़ी चोरी चली गयी। जब वह बाहर आया, कुल्हाड़ी नदारद थी। उसने एक लड़के को जाते देखा, पड़ोसी के लड़के को। उसने कहा, हो न हो यही शैतान चुरा ले गया। मगर अब कह भी नहीं सकता था, क्योंकि देखा तो था नहीं। उस दिन से वह उस लड़के को गौर से देखने लगा, उसमें सब तरह की शैतानियां उसे दिखायी पड़ने लगीं। चालाक मालूम पड़े, उसकी आंख में बदमाशी मालूम पड़े, उसके ढंग-चाल में शरारत मालूम पड़े। और तीसरे दिन उसको कुल्हाड़ी अपनी लकड़ियों में ही मिल गयी। लकड़ियों में दब गयी थी। जिस दिन उसको कुल्हाड़ी मिली, वह लड़का फिर बाहर से निकला, आज उसे उसमें कोई शरारत दिखायी न पड़ी, न कोई शैतानी दिखायी पड़ी। आज वह लड़का बड़ा प्यारा मालूम होने लगा भला, सज्जन। और उसे पश्चात्ताप होने लगा कि इस सज्जन लड़के के प्रति मैंने कैसे बुरे खयाल बना लिये! तुमने भी खयाल किये होंगे ऐसे अनुभव! तुम्हारी भावनाएं तुम आरोपित करते हो| मेरा बेटा! तुम्हें बेटे से कुछ लेना-देना नहीं है, यह मेरे का फैलाव है, यह अहंकार का फैलाव है। मेरी पत्नी! यह मेरे अहंकार का विस्तार है। मेरे' का अर्थ होता है- 'मैं' का विस्तार।
___मैं इस सूत्र का अर्थ करता हूं-पुत्र और पत्नी आदि के प्रति स्नेहरहित, ऐसा नहीं; स्नेहरहित, ऐसा नहीं, क्योंकि यह तो बात ही गलत है। यह तो मैं जानकर कहता हूं,अनुभव से कहता हूं कि यह बात गलत है। इसके लिए मुझे कुछ किसी शास्त्र में जाने की जरूरत नहीं है। यह मैं अपनी प्रतीति से कहता हूं कि यह बात गलत है। ज्ञान में ही प्रेम घटता है। ज्ञान के पहले प्रेम कहा! प्रेम तो ज्ञान का ही प्रकाश है। ज्ञान के पहले प्रेम कहां है! जान का फूल खिलता है तभी प्रेम की गंध और प्रेम की सुगंध फैलती है। उसके पहले तुमने जिसे प्रेम समझा है वह प्रेम नहीं है, वह अहंकार का ही रोग है। वह अहंकार की ही दुर्गंध है। लेकिन पुरानी आदत के कारण सुगंध मालूम पड़ती है।