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अब तुम्हारे तथाकथित महात्मा हैं जो समझा रहे हैं तुम्हें संसार से बचो। और साथ-साथ कह रहे हैं संसार माया है। तुमने उनकी जरा मूढ़तापूर्ण बात देखी? कहते हैं, संसार माया है और बचो! जो माया है उससे बचना कैसा! माया का तो अर्थ हुआ जो है ही नहीं। रस्सी में दिख गया साप, इससे भागना कैसा! और न केवल तुमसे कह रहे हैं भागो, खुद भी भाग रहे हैं। और साथ-साथ यह भी चिल्लाते जा रहे हैं कि रस्सी है, सांप नहीं है -मगर भागों! और सावधान रहना कामिनी-कांचन से! इस विकृति को देखते हो? इस असंगति को देखते हो? एक तरफ चिल्लाए चले जाते हैं कि संसार असत्य है, और दूसरी तरफ चिल्लाए चले जाते हैं छोड़ो संसार को, संसार का त्याग करो, मुक्त हो जाओ संसार से। जो असत्य है, उससे मुक्त होने का उपाय नहीं। जो असत्य है, उससे तो तुम मुक्त हो ही गये यह जानते ही कि असत्य है।
तो इतना ही कहेगा ज्ञानी कि संसार को गौर से देख लो, देखने में ही मुक्ति है। दवेष का तो सवाल ही नहीं है।
धीरो न वेष्टि संसार...|
ज्ञानी को, धीरपुरुष को संसार से कोई द्वेष नहीं है, क्योंकि संसार है नहीं। द्वेष के लिए होना तो जरूरी है! फिर जिससे द्वेष होता है, उससे राग भी हो सकता है। द्वेष तो राग का ही दूसरा पहलू है। तुम्हारी किसी से दुश्मनी हो जाती है, तो दोस्ती भी हो सकती है। जिससे भी दुश्मनी हो सकती है, उससे दोस्ती भी हो सकती है। जिससे दोस्ती हो सकती है, उससे दुश्मनी भी हो सकती है। दोनों के दवार एक-साथ खुलते हैं। जिसको तुमने दोस्त बनाया, उससे किसी भी दिन दुश्मनी बन सकती है। और जो तुम्हारा आज दुश्मन है, कल दोस्त भी हो सकता है।
मैक्यावेली ने अपनी किताब 'दि प्रिंस' में कहा है, राजाओं के लिए सलाह दी है, उसमें एक सलाह यह भी है कि अपने दोस्तों से भी तुम वह बात मत कहना जो तुम अपने दुश्मनों से भी नहीं कहना चाहते। क्योंकि जो आज दोस्त है, कल दुश्मन हो सकता है। और यह भी सलाह दी है कि अपने दुश्मन के खिलाफ भी ऐसी बात मत कहना कि कल अगर उससे दोस्ती हो जाए तो फिर तुम्हें अड़चन हो लौटाने में, वह बात लौटाने में अड़चन हो। क्योंकि जो आज दुश्मन है, वह कल दोस्त हो सकता है। यह बात मैक्यावेली ने ठीक ही कही है। यह बात सच है। जिससे दवेष है, उससे राग हो सकता है। क्योंकि दवेष राग का ही शीर्षासन करता हुआ रूप है। जिससे राग है, उससे दवेष हो सकता है। ज्ञानी को न राग है, न दवेष है। ज्ञानी को तो यह बोध हुआ, ज्ञानी ने तो जागकर यह देखा, अपने परम चैतन्य में यह अनुभव किया कि यहां कुछ राग-दवेष करने को है ही नहीं। तुम छायाओं से उलझ रहे हो। न इनसे दोस्ती हो सकती है, न दुश्मनी हो सकती है। तुम छायाओं को अपने आलिंगन में बांध रहे हो। तुम किनके हाथ लेकर चल रहे हो? ये हाथ हैं नहीं, तुम्हारी कल्पनाएं हैं। तुमने यह जो इकट्ठा कर रखा है धन, दौलत, यह कुछ भी नहीं है। सिर्फ खयाल है।
खयाल है, ऐसा खयाल पैदा होते ही मुक्ति हो गयी। वीरो न दवेष्टि संसार..।