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परमात्मा को देखना है? तर्क अंधा है। प्रेम से ही देखा जा सकता है। सौंदर्य को देखना है? तर्क अंधा है। प्रेम से ही देखा जा सकता है। जीवन में जो भी सत्यं शिवं सुंदरम् है वह सभी प्रेम से देखा जाता है, तर्क से नहीं देखा जाता । तर्क तो तीनों की गरदन दबाकर मार डालता है।
तुम्हें अगर भक्ति में थोड़ा भी रस है - होगा जरूर, पूछा है - लेकिन तुम्हारे मन में तथाकथित ज्ञानियों ने बहुत जहर भर दिया है, उस जहर को अलग करो। उससे छुटकारा करो अपना । भक्ति तो एक ही तरह की है। भक्ति में कहां दो तरह के प्रकार का प्रश्न ? भक्ति में दो की जगह ही नहीं है।
और फिर तुम पूछते हो, 'भवसागर से पार उतरकर........
यह भी भक्त का सवाल नहीं है। भवसागर से पार उतरना भी ज्ञानियों का ही सवाल है। भवसागर! वह शब्द भी ज्ञानियों का है। भक्त तो कहता है, हे प्रभु! हजार-हजार बंधनों में मुझे बांधे रखना। वह भवसागर वगैरह से पार उतरने की बात ही नहीं करता। वह कहता है, तेरा तेरा ही संसार है, पार क्या उतरना ! तेरा ही रूप तेरा सौंदर्य, तेरा ही रंग) तेरा ही रास जाना कहां है? भक्त तो कहता है, खूब - खूब मुझे उलझाये रखना; जाने मत देना ।
भक्त की भाषा तुम्हारे पास नहीं है - जिसने भी प्रश्न पूछा है। भवसागर का तो अर्थ है, कैसे छुटकारा हो? और अगर तुम इस संसार से छुटकारा चाहते हो तो संसार बनानेवाले से तुम्हारा लगाव बहुत गहरा नहीं हो सकता है।
तुमने कभी देखा ? तुम कवि को तो प्रेम करते हो, उसकी कविता को घृणा करते हो, यह संभव है? तुम एक चित्रकार को तो प्रेम करते हो लेकिन कहते हो तुम्हारे चित्रकार होने में तो ठीक हो, सब अच्छा है, लेकिन तुम्हारे चित्रों में आग लगा देने का मन होता है। तुम अगर पिकासो से कहोगे कि तुम तो भले हो, तुमसे तो हमारा बड़ा लगाव है, लेकिन तुम्हारी ये सब जितनी पेंटिंग हैं, इनमें आग लगा देने का मन होता है। तो क्या अर्थ हुआ इसका ? अगर सब चित्रों में आग लगा देने का मन होता है तो तुमने चित्रकार को मार ही डाला। क्योंकि चित्रकार अपने चित्रों में है। चित्र जल गये तो चित्रकार एक साधारण आदमी है, चित्रकार नहीं है। अगर गीतकार के गीत तुमने नष्ट कर दिये तो गीतकार न रहा। अगर नर्तक का नर्तन छीन लिया तो साधारण हो गया, नृत्यकार न रहा ।
तुम परमात्मा से उसकी सृष्टि छीन लो, परमात्मा परमात्मा थोड़े ही रह जाता है। तुमने बड़ा गहरा अपमान कर दिया। भक्त ऐसी भाषा नहीं बोलता । भक्त तो कहता है कि इस योग्य बनूं तू मुझे बार-बार बंधनों में बाधे, बार - बार छिपे और छिया -छी का खेल हो । बार-बार मुझे पुकारे और मैं तुझे खोजूं और तू न मिले दूर -दूर तेरी छाया दिखाई पड़े, दौडूं और फिर तुझे न पाऊं, और फिर दौडूं और फिर तुझे न पाऊं। और यह खेल अनंत काल तक चलता रहे।
भक्त की भाषा अलग है। भक्त की भाषा में मोक्ष के लिए जगह नहीं है। भक्त के लिए तो यही मोक्ष है। यही तो भक्त की क्रांतिकारी दृष्टि है। इसको मैं उसकी आंख कहता हूं। ज्ञानी का मोक्ष कहीं और है। वह कहता है इस भवसागर से छुटकारा हो, तब मोक्ष। उसका मोक्ष जीवन विरोधी है।