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कलियों के तन चिटके परिमल के कण छिटके मलयानिल ने रह-रह सुरभित आचल झिटके जाग उठे बन सोये किरणों ने मुंह धोये फिर आया है मौसम वल्लरी पिरोने का
भीगने-भिगोने का अमृत की वर्षा होने लगी। फिर आया है मौसम भीगने -भिगोने का। इबने लगे। रोंआ-रोंआ आनंद में डूबने लगा। मगर यह कोई स्थिर बात तो नहीं है। यह भी शीतल हो जायेगी। इसलिए शीतल शब्द का उपयोग किया है।
यह तो बड़ी उत्तप्त है। हर्षोन्माद! यह तो बड़ा उत्तप्त है। इसमें तो बड़ा नाच है, बड़ा रंग है। बड़ी गजल। बड़ी रंगरलियां। पहली दफा जीवन के उत्सव ने अपने दवार खोले हैं। पहली बार, जिसकी सदा-सदा से तलाश थी उससे मिलन हुआ है। प्रियतम के हाथ में हाथ पड़ा है।
कबीर ने कहा है, हम राम की दुल्हनिया। भांवर पड़ गई। अब तो हम राम के साथ चल पड़े। अब तो राम के साथ हम जुड़ गये, एक हो गये।
कोई कैसे नहीं नाचेगा? कोई कैसे नहीं गुनगुनायेगा? कैसे नहीं संगीत का जन्म होगा? नाद जगेगा, वादन होगा, कीर्तन होगा। लेकिन यह ज्यादा देर नहीं, इसलिए शीतल।
'धीर पुरुष का चित्त अमृत से पूरित हुआ शीतल है।'
अंतिम अवस्था में थोड़ी ही देर में यह सब शांत हो जायेगा। सब शीतल हो जायेगा। सब शून्य हो जायेगा।
'इसलिए न वह लाभ के लिए प्रार्थना करता है, न हानि होने से कभी चिंता करता है।'
अब न अपनी उसकी कोई प्रार्थना है लाभ के लिए, न हानि की कोई चिंता है। अब न कुछ खोने को है, न कुछ पाने को है। अब न कहीं जाने को है। यात्रा समाप्त हुई। गंतव्य आ गया। अब कोई गति नहीं है। अब कोई गतिवान नहीं। अब सब ठहरा। अब सब परम अवस्था में ठहरा। इसे ही कहें समाधि।
पतंजलि ने समाधि के दो रूप कहे हैं। एक को कहा, सविकल्प समाधि। एक को कहा, निर्विकल्प समाधि। सविकल्प समाधि में हर्षोन्माद होगा। निर्विकल्प समाधि में कोई हर्ष न रह जायेगा, कोई उन्माद न रह जायेगा। निर्विकल्प समाधि शीतल होगी। कोई विकल्प न बचा।
यह परम शून्यता लक्ष्य है। और जिसने इसे पा लिया उसने पूर्ण को पा लिया है। शून्य के द्वार से आता है पूर्ण। तुम मिटो तो प्रभु हो सकता है।
आज इतना ही।