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अष्टावक्र कहते हैं, जब कोई व्यक्ति संसार के अनंत जाल से मुक्त होता है, जन्मों-जन्मों के जाल से, तो अहोभाव से, धन्यभाव से नाच उठता है कि अहा! स्वतंत्र हो गया। मुक्त हो गया।
लेकिन यह भी क्षणभंगर बात है। यह संसार के ही पृष्ठभूमि में वक्तव्य है। थोड़े दिन बाद यह बात खतम हो गई।
अगर तुम को अब बुद्ध महावीर मिल जायें कहीं, तो तुम उनको नाचते थोड़े ही पाओगे! अगर अब भी नाच रहे हों तो दिमाग खराब है। ठीक था जब इस कारागृह से छूटे थे। जन्मों-जन्मों पुराना कारागृह! अपूर्व आनंद हुआ होगा पग धुंघरू बांध मीरा नाची। निश्चित हुआ होगा। कबीर कहते हैं, 'अब हम घर चले अविनाशी।' बड़ा आनंद हुआ होगा|
लेकिन यह तो क्षण की ही बात है। और ठीक से समझना, तो संसार की ही अपेक्षा में है। यह संसार से मुक्त होकर भी अभी संसार से बंधी बात है। यह आदमी जेल से बाहर निकल आया, यद्यपि बाहर निकल आया लेकिन अभी बीस साल जो जेल में रहा है, वह छाया इसके सिर में घूम रही है। उसी छाया के कारण यह बाहर का आकाश इतना मुक्त मालूम हो रहा है। वह सींखचों के भीतर से देखा गया आकाश अभी भी छूट नहीं गया है। सींखचों के बाहर आ गया है, आंखों पर सींखचे जड़े रह गये हैं, अटके रह गये हैं। और जब यह देखता है खुला आकाश और कोई रोकने वाला नहीं, हाथ में जंजीरें नहीं। हाथ में झकझोर कर देखता है, पुराना बोझ छूट गया है लेकिन अभी कहीं पुराने बोझ की छाया मौजूद है; उसी की तुलना में। संसार की तुलना में ही मोक्ष। लेकिन यह तुलना ज्यादा देर तो नहीं टिक सकती। संसार ही चला गया तो संसार से उत्पन्न होनेवाली जो धारणा है, वह भी चली जायेगी।
इसलिए अष्टावक्र कहते हैं, 'योगी को न स्वर्ग है और न नर्क, और न जीवगक्ति ही है। इसमें बहु त कहने से क्या प्रयोजन है? योगी को योग की दृष्टि से कुछ भी नहीं है।'
बहुनात्र किमुक्तेन योगदृष्टधा न किंचन
बड़ी अपूर्व बात है। अष्टावक्र कहते हैं, योग की दृष्टि से योगी को कुछ भी नहीं है। न स्वर्ग है न नर्क है; मोक्ष भी नहीं है। न सुख है न दुख, आनंद भी नहीं है। योग की दृष्टि से योगी को कुछ भी नहीं है।
योगदृष्टधा न किंचन।
योगी ही नहीं बचा, अब और क्या बचेगा? बुद्ध ने इसे महाशून्य कहा है, निर्वाण कहा है। बुझ गया दीया अहंकार का। हो गया दीये का निर्वाण। अब कुछ भी न बचा। जहां कुछ भी न बचा वहीं सब बचा। सीमा न रही, असीम हुआ| स्वयं मिटे, अनिर्वचनीय का जन्म हुआ।
'धीर पुरुष का चित्त अमृत से पूरित हुआ शीतल है।' समझना; क्योंकि अष्टावक्र के एक-एक शब्द बड़े बहुमूल्य हैं।
'धीर पुरुष का चित अमृत से पूरित हुआ शीतल है। इसलिए न वह लाभ के लिए प्रार्थना करता और न हानि होने की कभी चिंता करता है।'