________________
तुम जरा जांचना; कितनी-कितनी धारणाओं से तुम भरे हो। और इन धारणाओं को तुमने ही सम्हाल रखा है। अब कोई पकड़े भी नहीं है। तुम्हारे मां-बाप भी तुम्हारे पास नहीं होंगे। समाज भी अब तुम्हें कोई रोज तुम्हारे आसपास लकीरें नहीं खींच रहा है। खींच चुका; बात आयी-गई हो गई। लेकिन अब तुम जीये चले जा रहे हो। अब तुम अपनी ही लकीरों में बंद हो। और तब तुम्हारे जीवन में वह महाक्रांति नहीं घट पाती तो आश्चर्य नहीं।
फूल डाली से गुंथा ही झर गया
घूम आयी गंध पर संसार में फूल तो बंधा है; गंध मुक्त है।
फूल डाली से गुंथा ही झर गया
घूम आयी गंध पर संसार में गंध जैसे बनो। महाशय बनो। फूल जैसे मत रहो, सीमित मत रहो।
था गगन में चांद, लेकिन चांदनी व्योम से लाई उसे भू पर उतार बांस की जड़ बांसुरी को एक स्वर कर गया गुंजित जगत के आरपार और मिट्टी के दिये को एक लौ दे गई चिर ज्योति चिर अंधियार में घूम आयी गंध पर संसार में फूल डाली से गुंथा ही झर गया बद्ध सीमा में समुंदर था मगर मेघ बन उसने छुआ जा आसमान तृप्ति बंधी एक जल-कण में रही विष अमृत का दे गई पर प्यासदान कूल जो लिपटा हुआ था धूल से संग लहर के तैर आया धार में घूम आयी गंध पर संसार में
फूल डाली से गुंथा ही झर गया तुम पर निर्भर है। फूल बने-बने ही गिर जाओगे, सूख जाओगे या असीम बनोगे-महाशय! गंध की तरह मुक्त! कि घूम आओ सारे संसार में। __ गंध बन जाओ तो मैं कहता हूं संन्यासी हो गये। फूल रह जाओ तो गृहस्थ। फूल यानी सीमा है, घर है। फूल यानी परिभाषा है, बंधन है, दीवाल है। संन्यास यानी गंध जैसे मुक्त। सब दिशायें खुल गईं। सारी हवाएं तुम्हारी हुईं। सारा आकाश तुम्हारा हुआ।
_ 'जिसके अंतःकरण में अहंकार है, वह जब कर्म नहीं करता है तो भी करता है। और अहंकाररहित धीरपुरुष जब कर्म करता है तो भी नहीं करता है।'
62
अष्टावक्र: महागीता भाग-5