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जो अष्टावक्र को समझकर अनुभव भी कर ले, धन्यभागी है। वह तो फिर ब्रह्म में रम गया। ___ जब तक तुम आशय में बंधे हो तब तक तुम्हारी सीमा है। जिस दिन तुम आशय से मुक्त हुए उसी दिन सीमा से मुक्त हुए। सीमा तुम्हारी धारणा में है। तुमने खींच रखी है। यह जो लक्ष्मण रेखा तुमने खींच रखी है, किसी और ने नहीं खींची है, तुम्हीं ने खींच रखी है। और अब तुम निकल नहीं पाते। अब तुम कहते हो, लक्ष्मण रेखा के बाहर कैसे जायें? डर लगता है। घबड़ाहट होती है। ___गुरजिएफ ने लिखा है कि वह अपने युवावस्था के दिनों में मध्य एशिया के बहुत-से देशों में यात्रा करता रहा सत्य की खोज में। कुर्दिस्तान में उसने एक अनूठी बात देखी। पहाड़ी इलाका है। स्त्रियों को, पुरुषों को बड़ी मेहनत करनी पड़ती है तब कहीं दो जून रोटी जुटा पाते हैं। तो बच्चों को घर छोड़ जाते हैं। जंगल-पहाड़ में लकड़ी काटने जाते हैं, काम करने जाते हैं। तो उन्होंने एक तरकीब निकाल रखी है। वे बच्चों के चारों तरफ चॉक की मिट्टी से एक लकीर खींच देते हैं, गोल घेरा बना देते हैं।
और बच्चे को कह देते हैं, बाहर तू निकल न सकेगा, चाहे कुछ भी कर। ____ छोटे बचपन से यह बात कही जाती है। धीरे-धीरे बच्चा इसका अभ्यस्त हो जाता है। बस लकीर खींच दो कि वह उसके भीतर बैठा रहता है। जब गुरजिएफ ने यह देखा तो वह बड़ा हैरान हुआ कि दुनिया में यह कहीं नहीं होता, लेकिन कुर्दिस्तान में होता है। और मां-बाप बड़े निश्चित जंगल चले जाते हैं अपना काम करने दिन भर। बच्चा रोये, गाये, कुछ भी करे, लेकिन लकीर के बाहर नहीं निकलता। . और बच्चे की तो बात छोड़ दो, जो कि इसी का अभ्यास बचपन से किया जाता है; अगर किसी बड़े आदमी के आसपास भी तुम लकीर खींच दो और कह दो, तुम बाहर न जा सकोगे तो वह भी एकदम खड़ा रह जाता है। वह चेष्टा भी करता है तो ऐसा लगता है, कोई अदृश्य दीवाल उसे धक्के दे रही है।
कहीं कोई दीवाल नहीं है, धारणा की दीवाल है। वह निकलने नहीं देती। कभी-कभी कोई चेष्टा भी करता है तो धक्का खाकर गिर पड़ता है। और धक्का खाने को कुछ भी नहीं है, अपना ही भाव-कि निकलना हो नहीं सकता।
यह तुम चकित होओगे जानकर, लेकिन सम्मोहन के ये सामान्य नियम हैं। और इसी तरह तुम्हारा जीवन भी न मालूम कितनी लकीरों से ग्रसित है। वे लकीरें तुमने खींची हैं—तुम्हारे मां-बाप ने, समाज ने, व्यवस्था ने। मगर वे लकीरें सब झूठी हैं। पर एक बार खींच दी तो बस, खिंच गई।
किसी ने लकीर खींच दी कि तुम हिंदू हो। अब तुम हिंदू हो गये। अब तुम हिंदू से इधर-उधर हिल न पाओगे। दीवाल खड़ी है। निकलने की कोशिश की तो चोट खाकर गिरोगे। किसी ने लकीर खींच दी कि तुम मुसलमान हो, तुम मुसलमान हो गये। किसी ने लकीर खींच दी कि जैन हो तो जैन हो गये। ये सब लकीरें हैं। और इन सबके कारण तुम क्षुद्र आशय हो गये हो। तुम्हारा महाशय रूप खो गया। लोग जो कह देते हैं वही तुम हो गये हो।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं, अगर किसी बच्चे को घर में भी कहा जाये कि तू गधा है; स्कूल में भी कहा जाये कि तू गधा है, वह गधा हो जाता है। जब इतने लोग कहते हैं तो ठीक ही कहते होंगे। धारणा मजबूत हो जाती है। धारणा एक बार गहरी बैठ जाये तो उखाड़ना बहुत मुश्किल हो जाता है।
महाशय को कैसा मोक्ष।
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