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उठाना । छोड़ना मत; चाहे कुछ भी हो जाये ।
तो एक ही नौकर टिकता था उसके पास। वह उसका मालिक हो गया था। वह तो उसकी पिटाई भी कर देता था ।
गुरु तो केवल एक उपाय है। कभी जरूरत होगी तो वह तुम्हारी पिटाई भी करेगा। कभी खींचेगा भी नींद से ।
• समर्पण का इतना ही अर्थ है कि तुम गुरु से कहते हो कि मुझे पक्का पता है कि मैं तीन बजे उठ न सकूंगा । और मुझे यह भी पता है कि तीन बजे मैं करवट लेकर सो जाऊंगा। मुझे यह भी पता है कि तुम भी उठाओगे तो मैं नाराज होऊंगा। फिर भी तुम कृपा करना और उठाना।
समर्पण का और क्या अर्थ है ? समर्पण का इतना सा सीधा सा अर्थ है कि मैं तुम्हारे चरणों में निवेदन करता हूं कि मुझसे तो उठना हो नहीं सकता। और यह भी मुझे पक्का है कि तुम भी मुझे उठाओगे तो मैं बाधा डालूंगा। यह भी मैं नहीं कहता कि मैं बाधा नहीं डालूंगा। मैं सहयोगी होऊंगा यह भी पक्का नहीं है। मगर प्रार्थना है मेरी: तुम मेरी बाधाओं पर ध्यान मत देना । मेरी नासमझियों का हिसाब मत रखना। मैं गाली-गलौज भी बक दूं कभी, क्षमा कर देना। यह मैं तुमसे प्रार्थना कर रहा हूं लेकिन मुझे उठाना। मुझे उठना है। और तुम्हारे सहारे के बिना न उठ सकूंगा।
समर्पण का इतना ही अर्थ है कि तुम अपना अहंकार किसी के चरणों में रख देते हो और उससे निवेदन कर देते हो कि वह तुम्हें खींच ले, उठा ले, जगा ले। तुम्हारी नींद गहरी है; जन्मों-जन्मों की । अगर तुम स्वयं उठ सको, बड़ा शुभ। कोई जरूरत नहीं। किसी गुरु को कष्ट देने की कोई जरूरत नहीं। कोई गुरु उत्सुक नहीं है। क्योंकि किसी को भी तीन बजे उठाना कोई सस्ता मामला नहीं है, उपद्रव का मामला है। कोई धन्यवाद थोड़े ही देता है!
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फिर तुम पूछ रहे हो, 'व्यक्तित्व की पूजा न कर व्यक्ति की पूजा कहां तक उचित है ?"
समर्पण और व्यक्ति की पूजा का कोई संबंध नहीं है। जिसके प्रति तुमने समर्पण कर दिया उसके साथ तुम एक हो गये। पूजा कैसी ? कौन आराध्य और कौन आराधक ? गुरु और शिष्य के बीच पूजा का भाव ही नहीं है। शिष्य ने तो गुरु के साथ अपने को छोड़ दिया। यह तो गुरु के साथ एक हो गया। इसमें पूजा इत्यादि कुछ भी नहीं है। अगर पूजा कायम रह गई तो समझना कि समर्पण पूरा नहीं है ।
समर्पण का तो अर्थ ही यह होता है कि मैंने जोड़ दी अपनी नाव तुम्हारी नाव से। मैं अपने को पोंछ लेता हूं; तुम मेरे मालिक हुए। अब तुम ही हो, मैं नहीं हूं। अब पूजा किसकी, कैसी? यह कोई व्यक्ति-पूजा नहीं है।
और इसमें एक बात और समझ लेने की जरूरत है। पूछा है, 'व्यक्तित्व की पूजा न कर व्यक्ति की पूजा कहां तक उचित है ?"
आदमी बहुत बेईमान है। आदमी की बेईमानी ऐसी है कि वह तरकीबें खोजता है । अगर तुम उससे कहो, आदमी को प्रेम करो; तो वह कहता है, आदमियत को प्रेम करें तो कैसा ? अब आदमियत को खोजोगे कहां? जब भी प्रेम करने जाओगे, आदमी मिलेगा; आदमियत कभी भी न मिलेगी। अब तुम कहो, हम 'आदमियत को प्रेम करेंगे। तो आदमियत कहां... मनुष्यता को कहां पाओगे ?
मनुष्यता तो एक शब्द मात्र है, कोरा शब्द । ठोस तो आदमी है। मगर तरकीब काम कर जायेगी।
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अष्टावक्र: महागीता भाग-5