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आती है। यात्रा बहुत लंबी हुई, समय भी बहुत व्यतीत हुआ, घर वापिस चलूं। और जब गिरने लगा पत्थरों की ढेरी में तो उसने कहा, देखो, लौट आया। यद्यपि महलों में मेहमान था, सम्राटों के हाथों का शृंगार बना। कैसे-कैसे स्वागत समारंभ न हुए ! तुम तो समझ भी न पाओगे। तुम तो कभी इस ढेरी से उठे नहीं, उड़े नहीं । आकाश की स्वच्छंदता, चांद-तारों से मेल- सब जाना, सब देखा, लेकिन फिर भी घर अपना घर है। घर की बहुत याद आती थी। लौट आया हूं। पत्थर वापिस ढेरी में गिर गया।
ऐसी आदमी की भी कथा है। न तो प्रारंभ तुम्हारे हाथ में है और न अंत तुम्हारे हाथ में है। श्वास जब तक चलती है, चलती है; जब न चलेगी तो तुम क्या कर सकोगे? लेकिन तुम तो यह कहते हो, मैं श्वास ले रहा हूं। परमात्मा तुमसे श्वास लेता और तुम कहते हो, मैं श्वास ले रहा हूं। तुम श्वास ले रहे होओगे तो मौत द्वार पर आ जायेगी तब लेते रहना तो पता चलेगा कि कौन लेनेवाला था ! मौत द्वार पर आयेगी तो तुम एक श्वास भी ज्यादा न ले सकोगे। जो श्वास बाहर गई तो बाहर गई; भीतर न लौटेगी। लाख तड़पो और चिल्लाओ । लाख शोरगुल मचाओ, श्वास वापिस न आयेगी। तुम लेना चाहोगे लेकिन ले न सकोगे।
श्वास तुम ले नहीं रहे हो, श्वास चल रही है। परमात्मा ले रहा है। परमात्मा का अर्थ है, यह समग्र । यह समग्र अपने अंश अंश में तरंगायित है, श्वास ले रहा है। ज्ञानी इसे ऐसा देख लेता है, जैसा है। अज्ञानी वैसा मान लेता है जैसा मानना चाहता है । वैसा नहीं देखता, जैसा है।
सर्वारंभेषु — सब कामों का जो प्रारंभ है, वहीं समझ लेने की बात है।
कृष्ण ने गीता में कहा है, फलाकांक्षा को प्रभु को समर्पित कर दो। यह सूत्र उससे भी गहरा है। क्योंकि यह कहता है, फलारंभ को प्रभु को समर्पित कर दो। फलाकांक्षा तो अंत में होगी, फल तो पीछे मिलेगा। कृष्ण कहते हैं फलाकांक्षा को प्रभु को समर्पित कर दो, अष्टावक्र कहते हैं फलारंभ को। क्योंकि अगर फलारंभ को समर्पित न किया तो तुम फलाकांक्षा को भी समर्पित न कर पाओगे। जो प्रारंभ में ही चूक गया वह बाद में कैसे सम्हलेगा ? पहले कदम पर ही गिर गया, अंतिम कदम ठीक कैसे पड़ेगा ? गणित तो शुरू से ही गलत हो गया। भूल तो पहले ही हो गई ।
इसलिए मैंने कृष्ण की गीता को गीता कहा है और अष्टावक्र की गीता को महागीता कहता हूं। ज्यादा गहरे जाती है। ज्यादा जड़ को, जड़मूल से पकड़ती है। आमूल उखाड़ देने का रूपांतरण संभव
है।
प्रारंभ को परमात्मा पर छोड़ दो। और जिसने प्रारंभ छोड़ दिया, अंत तो छूट ही गया। जब प्रारंभ ही तुम मालिक न रहे तो अब कैसे मालिक हो सकोगे ? अब तो कोई जगह न बची। अब तो मालकियत कहीं पैर जमाकर खड़ी न हो सकेगी। तुमने जमीन ही खींच ली।
सर्वारंभेषु — सब कर्मों के प्रारंभ में । वह जो करने की वासना है कि मैं करूं; कि मैं दिखाऊं; कि मैं ऐसा हो जाऊं; कि ऐसा मुझसे घटित हो, वह छोड़ दो। उसे छोड़ते ही कोई ज्ञानी हो जाता है। उसे पकड़े ही आदमी अज्ञानी है।
और अगर तुमने प्रारंभ न छोड़ा तो तुम लाख उपाय करो, तुम अंत भी न छोड़ सकोगे। कैसे छोड़ोगे? ये सब चीजें संयुक्त हैं। अगर तुमने कहा कि जन्म तो मैंने लिया है तो फिर तुम कैसे कहोगे
मन का निस्तरण
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