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देखे, वे मेरे पैदा हो गये हैं। आज मैं आकाश में उड़ने के लिए जा रहा हूं। __स्वप्न तो पत्थर भी देखते हैं उड़ने के। उड़ नहीं पाते। मजबूरी में तड़पते हैं। आज इस पत्थर को अहंकार जगा। फेंका तो किसी ने था लेकिन पत्थर ने घोषणा की, कि देखते हो, सुनते हो? जिन पंखों के तुमने स्वप्न देखे वे मुझमें पैदा हो गये। आज मैं आकाश की यात्रा को जा रहा हूं। भेजा जा रहा था लेकिन उसने कहा, जा रहा हूं। पहल उसके स्वयं के भीतर से न आई थी। प्रारंभ किसी और ने किया था, लेकिन प्रारंभ का मालिक वह स्वयं बन गया।
और फिर जब जाकर कांच की खिड़की से टकराया और कांच चकनाचूर हो गया तो खिलखिला कर अट्टहास करके हंसा। और उसने कहा, सुनते हो? हजार बार मैंने कहा है, हजार बार चेताया है, मेरे मार्ग में कोई न आये अन्यथा चकनाचूर कर दूंगा।
अब जब पत्थर कांच से टकराता है तो कांच चकनाचूर होता है, पत्थर करता नहीं। यह कांच और पत्थर के स्वभाव से घटता है कि कांच चकनाचूर होता है। फर्क समझ लेना होने में और करने में। पत्थर ने कुछ किया नहीं है। करने को क्या है? कांच टूटा है। पत्थर निमित्त है तोड़ने में, कर्ता नहीं है।
लेकिन यह मौका कौन छोड़े? पत्थर यह मौका कैसे छोड़े? जैसे औरों ने घोषणायें की हैं, तुमने की हैं, उसने भी की : मेरे मार्ग में कोई न आये अन्यथा चकनाचूर कर दूंगा। आज मौका मिला है, घोषणा सही हो गई है, सही होती मालूम पड़ती। आज इस अवसर को चूक देना ठीक नहीं है। और कांच के टुकड़े कहें भी क्या? बात तो घट रही है, आंख के सामने घट रही है। पत्थर ने चकनाचूर कर ही दिया है। तो इनकार भी कहां है? प्रमाण भी कहां है इसके विपरीत? लेकिन फिर भी पत्थर ने कांच को चकनाचूर किया नहीं है, कांच चकनाचूर हुआ है। पत्थर जब कांच से टकराता है तो दोनों के स्वभाव से...और स्वभाव का नाम परमात्मा है। यह सहज हो रहा है। न कोई कर रहा है, न कुछ ' किया जा रहा है।
और जब कांच चकनाचूर हो गया और पत्थर जाकर महल के कालीन पर गिरा तो उसने सुख की सांस ली। उसने कहा, लंबी यात्रा की, थक भी गया हूं, दुश्मन को भी मारा, अब थोड़ा विश्राम कर लं। गिरा है कालीन पर, लेकिन कहता है, थोड़ा विश्राम कर लं।
और फिर मन में सोचने लगा, मेरे स्वागत में तैयारी की गई है। कालीन बिछाये गये। कोई मेरी प्रतीक्षा कर रहा है। और तभी महल का नौकर पत्थर और कांच की टकराहट की आवाज और कांच का टूटना और पत्थर का गिरना सुनकर भागा हुआ आया। तो पत्थर ने मन में कहा, मालिक आता है स्वागत के लिए। और जब नौकर ने पत्थर को अपने हाथ में उठाया तो पत्थर ने कहा, धन्यवाद। हालांकि किसी ने सुना नहीं। पत्थर की भाषा अलग, आदमी की भाषा अलग।
नौकर ने तो फेंकने को उठाया है वापिस, लेकिन पत्थर ने कहा धन्यवाद, तुम्हारे स्वागत से मैं प्रसन्न हूं। हो भी क्यों न? मैं कोई साधारण पत्थर नहीं हूं, विशिष्ट हूं। कभी-कभी विरले ऐसे पत्थर होते हैं जिनके पंख निकलते हैं और जो आकाश में उड़ते हैं। पुराणों में सुनी है यह बात, देखने में आज-कल तो आती नहीं।
नौकर ने फेंक दिया पत्थर वापिस। फेंका गया है, लेकिन पत्थर कहने लगा, घर की बहुत याद
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अष्टावक्र: महागीता भाग-5