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कुम्हलाया देवता तक पहुंचकर भी फूल रहा अम्लान धूल में गिरकर भी शूल
कभी देखा तुमने ? फूल देवता के चरणों में भी चढ़ा दो तो भी कुम्हला जाता है। और शूल, कांटा धूल में भी गिर जाये तो भी नहीं कुम्हलाता।
इस जीवन में हमारी समझदारी फूल जैसी कोमल है। वह देवता के चरणों में भी चढ़ती है तो कुम्हला जाती है। और हमारी नासमझी शूल की तरह है । वह धूल में भी गिर जाती है तो भी नहीं कुम्हलाती; तो भी ताजी बनी रहती है। कांटा वृक्ष से टूटकर कुछ कम कांटा नहीं हो जाता, ज्यादा ही कांटा हो जाता है। फूल वृक्ष से टूटकर कुम्हला जाता है, नष्ट हो जाता है।
हमारी समझदारी बड़ी कोमल, बड़ी क्षीण । और हमारी नासमझी बड़ी प्रगाढ़ । संसार से भी भाग जाते हैं तो भी नासमझी नहीं छूटती । जारी रहती नये-नये रूपों में, नये-नये ढंग में। नये-नये वेश पहनकर आ जाती है। अंतर नहीं पड़ता।
उसी की नासमझी मिटती है - 'हो गई है देह में गलित आशा जिसकी'। जिसने यह जान लिया कि मैं देह नहीं हूं। जिसने जान लिया कि मैं कौन हूं।
देहे विगलिताशस्य क्व रागः क्व विरागता ।
जिसने पहचान लिया कि मैं शरीर नहीं हूं । सब राग, सब विराग शरीर के हैं । राग भी शरीर से होता है, विराग भी शरीर से होता है । तुम स्त्रियों के पीछे पागल थे, एक दिन थक गये और तुमने 'कहा अब तो विराग हो गया।
एक मेरे मित्र हैं, एक दिन आये और कहने लगे, अब तो संन्यास ले लेना है। मैंने कहा हुआ क्या? उन्होंने कहा, दिवाला निकल गया । दिवाला निकल गया इसलिए संन्यास । यह कोई संन्यास होगा जो दिवाला निकलने से आता है ? यह एक स्वाद था अब तक जो बेस्वाद हो गया। अब उसके विपरीत चले | अब दिवाला निकल गया, धन तो बचा नहीं, अब कम से कम विरागी होने का मजा ले लें। अब वैराग्य सही। मगर अंतर नहीं पड़ रहा है।
वीतरागता का अर्थ है, न कोई राग है न कोई वैराग्य है। संतुलित हुए। स्वयं में थिर हुए। ये दोनों दृष्टियां व्यर्थ हैं। अब न संसार में कुछ पकड़ है, न छोड़ने का कोई आग्रह है। रहे संसार, प्रभु-मर्जी । जाये संसार, प्रभु-मर्जी। यह संसार जैसा है वैसा ही रहा आये, ठीक। यह इसी क्षण खो जाये तो भी ठीक ।
ज्ञानी अगर अचानक पाये कि सारा संसार खो गया है और वह अकेला ही खड़ा है तो भी चिंता पैदा न होगी कि कहां गया, क्या हुआ ? उसके लिए तो वह कभी का जा चुका था । यह संसार और बड़ा हो जाये, हजार गुना हो जाये तो भी उसे कोई अंतर न पड़ेगा। जिसका संबंध टूट चुका देह से, हो गई गलित जिसकी आशा देह में, अब उसके लिए कोई अंतर नहीं पड़ता ।
'मूढ़ पुरुष की दृष्टि सदा भावना और अभावना में लगी है लेकिन स्वस्थ पुरुष की दृष्टि भाव्य और अभाव से युक्त होकर भी दृश्य के दर्शन से रहित रूपवाली होती है।'
भावनाभावनासक्ता दृष्टिर्मूढ़स्य सर्वदा ।
भाव्यभावनया सा तु स्वस्थयादृष्टिरूपिणी ।।
मूढ़ कौन, अमूढ़ कौन !
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