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पत्नी बांका, वे दोनों भूखे रहे। चौथे दिन गये जंगल, लकड़ियां काटकर आता था रांका आगे-आगे लकड़ियां लिये, पीछे पत्नी भी लकड़ियां ढो रही है। देखा, राह के किनारे एक अशर्फियों से भरी थैली पड़ी है। जल्दी से लकड़ियां नीचे पटकी, थैली को गड्ढे में डाला, ऊपर से मिट्टी डाल दी। __जब वह मिट्टी डाल ही रहा था, डालने को चुक ही रहा था काम पूरा करके कि उसकी पत्नी आ गई। उसने पूछा क्या करते हो? तो कसम तो खाई थी सच बोलने की। झूठ बोल नहीं सकता था। तो उसने कहा, बड़ी मुश्किल हो गई। यह आचरण ऊपर से आरोपित होता तो ऐसी मुश्किल आती। कसम खाई थी सत्य बोलने की तो असत्य तो बोल नहीं सकता। तो कहा कि अब सुन। मैं चलता था तो देखा अशर्फियां पड़ी हैं। किसी राहगीर की गिर गई होंगी। उनको गड्ढे में डालकर मिट्टी डाल रहा था कि कहीं तू है-तू ठहरी स्त्री! कहीं तेरा मन लुभायमान न हो जाये। फिर तीन दिन के भूखे हैं हम। कहीं मन में भाव न आ जाये कि उठा लें। तुझे बचाने के लिए इनको डाल दिया गड्ढे में, मिट्टी ऊपर से फेंक दी।
कहते हैं, बांका हंसने लगी। उसी दिन से उसका नाम बांका हुआ। बांकी औरत रही होगी। हंसने लगी, खूब हंसने लगी। रांका बड़ा हैरान हुआ। उसने कहा, बात क्या है? हंसती क्यों हो?
उसने कहा, मैं इसलिए हंसती हूं कि तुम मिट्टी पर मिट्टी डालते हो। मिट्टी पर मिट्टी डालते तुम्हें शर्म नहीं आती? ____ अब ये दो दृष्टिकोण हैं। एक है त्यागी। उसका त्याग भी परिग्रहकेंद्रित है। अभी सोना दिखाई पड़ता है। लाख कहे कि सोना मिट्टी है मगर अभी सोना दिखाई पड़ता है। मिट्टी कहता ही इसलिए है ताकि जो दिखाई पड़ता है उसको झुठला दे। अभी सोना पुकारता है। अभी सोना बुलाता है। अभी सोने में निमंत्रण है। मिट्टी कह-कहकर समझाता है अपने को कि मिट्टी है, कहां चले? मत जाओ, बिलकुल मत जाओ, मिट्टी है। मगर सोना अभी सोना है।
यह जो बांका ने कहा, यह परम त्याग है। यह ठीक संन्यास है। मिट्टी पर मिट्टी डालते हुए शर्म नहीं आती? यह बात ही बेहूदी है।
सोना जैसा है वैसा है। इसके पीछे पागल होना तो पागलपन है ही, इसको छोड़कर भागना भी पागलपन है। जागना है। जान लेना है।
'मूढ़ पुरुष का वैराग्य विशेषकर परिग्रह में ही केंद्रित होता है।' जिन चीजों से मूढ़ पुरुष भागता है उन्हीं से घिरा रहता है। 'लेकिन देह में गलित हो गई है आशा जिसकी, ऐसे ज्ञानी को कहां राग है, कहां वैराग्य?'
ऐसा ज्ञानी वीतराग है। वह विरागी नहीं है। विरागी कोई अच्छा शब्द नहीं है, वह रागी के विपरीत शब्द है। और जो रागी के विपरीत है वह राग से अभी बंधा है। विपरीत सदा बंधा रहता है।
तुमने खयाल किया? मित्र चाहे भूल भी जायें, दुश्मन नहीं भूलता। दुश्मन से एक बंधन बना रहता है। दुश्मन से भी एक लगाव है, एक कड़ी जुड़ी है। जिससे तुम्हारा विरोध हो उससे तुम्हारी कड़ी जुड़ी है।
अष्टावक्र कहते हैं, ज्ञानी को कहां राग कहां वैराग्य! मजा यह है कि संसार से जो भाग जाते हैं उनका संसार समाप्त नहीं होता, नये-नये रूपों में प्रगट होता है। वैराग्य के नाम से प्रगट होता है।
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अष्टावक्र: महागीता भाग-5