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खो सकते नहीं। जो तुम्हारा है, सदा तुम्हारा है। तुम कितने ही गहन संसार में उतर जाओ, तुम्हारी आत्मा अलिप्त रहेगी। जाओ। खोज लो अंधेरी रात को। इसमें रस है, इसे पूरा कर लो। इसे विरस हो जाने दो। तुम्हारे ओंठ ही तुमसे कह दें, तुम्हारी जीभ तुमसे कह दे कि बस, अब तिक्त हो गया स्वाद। किसी और की सुनकर मत भाग खड़े होना।
कोई बुद्धपुरुष मिल जाये और कह दे कि संसार सब असार है...और जब बुद्धपुरुष कहते हैं तो उनकी बात में बल तो होता ही है। उनकी बात में चमत्कार तो होता ही है। उनकी बात के पीछे उनके प्राण तो होते ही हैं। उनकी बात के पीछे उनकी पूरी ऊर्जा होती है, जीवन का अनुभव होता है। तो जब कोई बुद्धपुरुष कुछ कहता है तो उसके वचन तीर की तरह चले जाते हैं। मगर इससे काम न होगा। तम किसी बद्धपरुष की मानकर पीछे मत चले जाना, नहीं तो तुम भटकोगे, पछताओगे। फिर-फिर लौटोगे। इस संसार की प्रक्रिया को ठीक से थका ही डालो। जहां तुम्हारा रस हो वहां चले ही जाओ। उसे भोग ही लो।
जब विचार स्वयं थक जाते हैं और मन स्वयं ही थककर क्षीण होने लगता है तभी...।
'जो धीर पुरुष अनेक प्रकारों के विचारों से थककर'-थककर, खयाल रखना—'शांति को उपलब्ध होता है, वह न कल्पना करता है, न जानता है, न सुनता है, न देखता है।'
फिर कोई अड़चन नहीं रह जाती। जो थककर आया है वह बैठते ही शांत हो जाता है। जिसका रस अभी कहीं अटका रह गया है वह शांत नहीं हो पाता। वह मंदिर में भी चला जायेगा तो दुकान की 'सोचेगा। वह प्रार्थना भी करेगा, पूजा भी करेगा तो दूसरे विचारों की तरंगें आती रहेंगी। ऊपर-ऊपर होगी प्रार्थना, भीतर-भीतर होगी वासना। ऊपर-ऊपर होगा राम, भीतर-भीतर होगा काम। उससे कुछ लाभ न होगा, क्योंकि जो भीतर है वही सच है। जो ऊपर है वह किसी मूल्य का नहीं। दो कौड़ी उसका मूल्य है। तुम कितना ही राम-राम दोहराओ इससे कुछ भी नहीं होता। तुम्हारे दोहराने का सवाल नहीं है, तुम्हारे अनुभव का; अनुभवसिक्त हो जाने का।
नानाविचारसुश्रांतो धीरो विश्रांतिमागतः। - तभी मिलती है विश्रांति, विराम, जब नाना विचारों में दौड़कर थक गये तुम। जीवन का अनुभव लेकर लौट आये घर। बाजार, दुकान, व्यर्थ। सबको खोज डाला, कहीं पाया नहीं। सब तरह से हारकर लौटे। हारे को हरिनाम! और तब हरि का जो नाम उठता है, जो हरिकीर्तन उठता है, उसकी सुगंध और, उसकी सुवास और।
जब तक हार न गये हो, आधी यात्रा से मत लौट आना। नहीं तो मन तो यात्रा करता ही रहेगा। इस जीवन में बड़े से बड़े संकटों में एक संकट है, अपरिपक्व अवस्था में ध्यान, समाधि, धर्म में उत्सुक हो जाना। ऐसे, जैसे कच्चा फल कोई तोड़ ले। पका नहीं था अभी। जब पक जाता है फल तो अपने से गिरता है। उसमें एक सौंदर्य है, एक लालित्य है, एक प्रसाद है। न तो वृक्ष को पता चलता है कि कब फल गिर गया। न फल को पता चलता है कि कब गिर गया। न कोई चोट फल को लगती, न वृक्ष को लगती। चुपचाप अलग हो जाता है। बिना किसी संघर्ष के अलग हो जाता है। सहज, प्रकृत्या-चुपचाप अलग हो जाता है।
पको! पककर ही गिरो।
शुष्कपर्णवत जीयो
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