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जागरण में तंद्रा रह नहीं जाती, निद्रा रह नहीं जाती, मूर्छा रह नहीं जाती तो संसार को फैलाने का उपाय नहीं रह जाता। इसलिए तो ज्ञानियों ने कहा है, संसार और सपना एक। __तुम समझो अर्थ। सपना और संसार एक का यही अर्थ है कि दोनों के फैलने की प्रक्रिया एक है। दोनों के होने का ढंग, ढांचा एक है। दोनों के लिए मूर्छा जरूरी है-सपने के लिए भी, संसार के लिए भी। और एक बात और तुमसे कह दूं, सपने के लिए गहरी मूर्छा जरूरी नहीं है, संसार के लिए गहरी मूर्छा जरूरी है। सपना तो जरा-सी झपकी आ जाती है, उसमें भी दिख जाता है। यह संसार की जो झपकी है, यह बड़ी प्राचीन है। जन्मों-जन्मों की है। यह बड़ी गहरी है।।
इसीलिए सपना व्यक्तिगत होता है और संसार सामूहिक। तुम सपना देखते हो, तुम मुझे अपने सपने में निमंत्रित नहीं कर सकते। तुम अपने मित्र को नहीं कह सकते कि कल मेरे सपने में आना। इसका कोई उपाय नहीं है।
सपना वैयक्तिक है। इसका अर्थ हुआ कि सपना व्यक्तिगत मूर्छा से उठा है।
यह संसार सामूहिक है। ये जो वृक्ष तुम्हें दिखाई पड़ रहे हैं, मुझे भी दिखाई पड़ रहे हैं। सभी को दिखाई पड़ रहे हैं। इसमें हम साझीदार हैं। सपने में मैं जो वृक्ष देखता हूं, मुझे दिखाई पड़ता है, तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता। तुम जो देखते हो, तुम्हें दिखाई पड़ता है, मुझे दिखाई नहीं पड़ता। यह वृक्ष मुझे भी दिखाई पड़ता है, तुम्हें भी दिखाई पड़ता है, सबको दिखाई पड़ता है। __ इसका केवल इतना ही अर्थ हुआ कि यह मूर्छा कुछ इतनी गहरी होगी कि सार्वभौम है। यह सबके भीतर फैली होगी। यह हमारा सामूहिक सपना है : कलेक्टिव ड्रीम। आधुनिक मनोविज्ञान कलेक्टिव अनकांशस की खोज पर पहुंच गया है। सामूहिक अचेतन।
पहले फ्रायड ने जब पहली दफा यह कहा कि चेतन मन के नीचे छिपा हुआ अचेतन मन होता है तो लोग चौंके। क्योंकि पश्चिम में यह कोई धारणा न थी। बस, चेतन मन सब था। फ्रायड अचेतन । मन को लाया। लोग बहुत चौंके। वर्षों मेहनत करके वह समझा पाया कि अचेतन मन है। बड़ी कठिनाई थी इसको सिद्ध करने में।
क्यों? मन का तो अर्थ ही लोग समझते हैं, चेतन। तो अचेतन मन, यह तो विरोधाभास मालूम पड़ता है। जिसका हमें पता ही नहीं है वह हमारा मन कैसे हो सकता है? अचेतन का अर्थ, जिसका हमें पता नहीं है। लेकिन फ्रायड ने समझाया। तुम भी समझोगे। कोशिश करोगे तो खयाल में आ जायेगा।
किसी का नाम तुम्हें याद नहीं आ रहा है और तुम कहते हो जबान पर रखा है। और फिर भी तुम कहते हो याद नहीं आ रहा है। अब तुम क्या कह रहे हो? तुम कहते हो, जबान पर रखा है; और तुम कहते हो, याद भी नहीं आ रहा है। और तुम जानते हो कि तुम्हें मालूम है। तो यह कहां सरक गया? यह तुम्हारे अचेतन में सरक गया। तो अचेतन में खड़खड़ भी कर रहा है, लेकिन जब तक चेतन में न आ जाये तब तक तुम पकड़ न पाओगे। फिर तुम जितनी चेष्टा करते हो उतना ही मुश्किल। तुम जितनी चेष्टा करते हो पकड़ लें, उतना ही छिटकता है।
फिर तुम थककर हार जाते हो। तुम कहते हो, भाड़ में जाने दो। तुम अपनी सिगरेट पीने लगे, कि अखबार पढ़ने लगे, कि रेडिओ खोल लिया। अचानक यह आ रहा-एकदम से आ गया। था;
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अष्टावक्र: महागीता भाग-5