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गई थी। वह गुरु के सामने ही बैठा था। कुछ घटना घटी ही न थी। वह जो सुंदर युवती थी, सपना थी। वे जो बच्चे हुए, सपने थे। वह जो बाढ़ आई, सपना थी। वे जो वर्ष पर वर्ष बीते, सब सपना था। वह अभी गुरु के सामने ही बैठा था। झपकी खा गया था। दोपहर रही होगी, झपकी आ गई होगी।
तुम यहां बैठे-बैठे कभी झपकी खा जाते हो। तुम जरा सोचो, तब एक क्षण की झपकी में यह पूरा सपना घट सकता है। क्यों? क्योंकि जागते का समय और सोने का समय एक ही नहीं है। एक क्षण में बड़े से बड़ा सपना घट सकता है। कोई बाधा नहीं है।
तुमने कभी अनुभव भी किया होगा, अपनी टेबल पर बैठे झपकी खा गये। झपकी खाने के पहले ही घड़ी देखी थी दीवाल पर, बारह बजे थे। लंबा सपना देख लिया। सपने में वर्षों बीत गये। कैलेंडर के पन्ने फटते गये, उड़ते गये। आंख खुली, एक मिनट सरका है कांटा घड़ी पर और तुमने वर्षों का सपना देख लिया। अगर तुम अपना पूरा सपना कहना भी चाहो तो घंटों लग जायें। मगर देख लिया।
स्वप्न का समय जागते के समय से अलग है। समय सापेक्ष है। अलबर्ट आइंस्टीन ने तो इस सदी में सिद्ध किया कि समय सापेक्ष है, पूरब में हम सदा से जानते रहे हैं, समय सापेक्ष है। जब तुम सुख में होते हो तो समय जल्दी जाता मालूम पड़ता है। जब तुम दुख में होते हो तो समय धीमे-धीमे जाता मालूम पड़ता है। जब तुम परम आनंद में होते हो तो समय ऐसा निकल जाता है कि जैसे वर्षों क्षण में बीत गये। जब तुम महादुख में होते हो तो वर्षों की तो बात दूर, क्षण भी ऐसा लगता है कि वर्षों लग रहे हैं और बीत नहीं रहा, अटका है। फांसी लगी है। . समय सापेक्ष है। दिन में एक, रात दूसरा। जागते में एक, सोते में दूसरा। और महाज्ञानी कहते हैं कि जब तम्हारा परम जागरण घटेगा तो समय होता ही नहीं। कालातीत। समय के तम बाहर हो जाते हो।
सपना देखने के लिए नींद जरूरी है, संसार देखने के लिए अज्ञान जरूरी है। तो अज्ञान एक तरह की निद्रा है, एक तरह की मूर्छा है, जिसमें तुम्हें यह पता नहीं चलता कि तुम कौन हो। नींद का और क्या अर्थ होता है? नींद में तुम यही तो भूल जाते हो न कि तुम कौन हो? हिंदू कि मुसलमान, स्त्री कि पुरुष, बाप कि बेटे, गरीब कि अमीर, सुंदर कि कुरूप, पढ़े-लिखे कि गैर-पढ़े लिखे-यही तो भूल जाते हो न नींद में कि तुम कौन हो।
मूर्छा में भी और गहरे तल से हम भूल गये हैं कि हम कौन हैं।
कल एक युवती मुझसे पूछती थी कि मैं यहां क्या कर रही हूं? संन्यासिनी है। मैं यहां क्या कर रही हूं यह मेरी समझ में नहीं आता। यह प्रश्न बार-बार उठता है कि मैं यहां कर क्या रही हूं। तो मैंने उससे कहा कि मेरे सिवाय यहां किसी को भी पता नहीं है कि कौन क्या कर रहा है। और यह प्रश्न यहीं उठता है ऐसा नहीं, तू कहीं भी होगी संसार में, वहीं उठेगा। यह उठता ही रहेगा। क्योंकि अभी तो तुझे यह भी पता नहीं कि तू कौन है। तो तू क्या कर रही है यह कैसे पता चलेगा? अभी तो मौलिक प्रश्न का ही उत्तर नहीं मिला, अभी तो आधार ही नहीं रखे गये उत्तर के, तू भवन उठा रही है!
होना पहले है, कर्म तो पीछे है। बिना हुए कर्म तो न कर सकोगे। हां, बिना कर्म किये हो सकते हो; इसलिए होना मौलिक है, आधारभूत है। तो पहले यह जानो कि मैं कौन हूं तो ही समझ पाओगे कि क्या कर रहे हो। मैं कौन हूं, ऐसा जिसने जान लिया उसका संसार मिट जाता है। क्योंकि उस परम
मृढ़ कौन, अमूढ़ कौन!
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