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________________ इसलिए न तो उसके संतोष में उसका संतोष है। उसके संतोष में परमात्मा का ही संतोष है। और उसके असंतोष में भी परमात्मा का ही असंतोष है। ज्ञानी तो वही है जो बीच से हट गया। जो अपने और परमात्मा के बीच से हट गया वही ज्ञानी है। पांचवां प्रश्नः भगवान, तेरी करुणा हम पाषाणों को न पिघला सकेगी। खाई है हमने कसम न बदलने की। सुनते हैं हम हर रोज तझे एक नशे के भांति। लेते हैं मजा तेरी अदभुत बातों का, लेकिन हटना नहीं चाहते हैं | च भर तो तुम सरक गये। इतना भी इंच भर भी। थक जायेगा तू, पर हम न थकेंगे। समझ में आ गया कि हम न हटेंगेतेरी करुणा हम पाषाणों को न हिला सकेगी। हट गये। इतना बोध क्या कम है कि तुम पहचान गये कि तुम पाषाण हो! जो पहचान गया कि मैं पाषाण हूं, यात्रा शुरू हो गई। पाषाण न रहा। चोट लग गई। तुम्हें ही याद आ गई यह बात, तो काम शुरू हुआ। और ध्यान रखना, पाषाण जितने पाषाण मालूम होते हैं इतने पाषाण हैं नहीं। देखा कभी? नदी गिरती है पहाड़ से, चट्टानों पर गिरती है। चट्टानें कितनी कठोर और जल कितना कोमल! पर रोज-रोज गिरती रहती है नदी। पहले दिन जब गिरती होगी तब तो पत्थर भी सोचते होंगे कि गिरती रहो, इससे कुछ होनेवाला नहीं। लेकिन रोज-रोज ठीक आठ बजे सुबह गिरती है। गिरती ही चली जाती। पत्थर तो यही सोचते होंगे कि चलो ठीक है, मजा आ रहा है, शीतलता आ रही है। मजा ले लेते हैं तेरे गिरने का। लेकिन एक दिन तुम पाओगे, नदी अब भी गिर रही है और पत्थर रेत के कण होकर सागर में खो गये। पत्थर टूट जाते हैं। रसरी आवत-जात है सिल पर पड़त निशान। रस्सी से पत्थर पर निशान पड़ जाता है—रस्सी से! रोज-रोज आती रहती है, जाती रहती है। तुम बैठे रहो। यही तो तुमसे कहता हूं, बात का मजा लेते रहो। तुम कुछ और ना भी किये अगर, तुम अगर मेरी बात का मजा ही लेते रहे, अगर यह स्वाद ही तुम पर चढ़ता चला गया-नशा ही सही, चलो यही सही। तुम मुझे नशे की तरह ही पीते रहो, तुम बदल जाओगे। पहले दिन तुम्हें लगेगा, तुम पाषाण जैसे हो। एक दिन अचानक तुम पाओगे, खोजोगे और पाषाण न मिलेगा। वह जो नशे सदगुरुओं के अनूठे ढंग 3151.
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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