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________________ मतलब यह हुआ कि अगर लाख-दो लाख मजदूर हों तो मिनट में बना देंगे। बस, वे नाराज हो गये। उन्होंने कहा, तुम बाहर निकलो। मैंने उनसे कहा, लाख मजदूर हों तो सालों लग जायेंगे। यह गणित बुनियादी रूप से गलत है। आप पूछ ही गलत बात रहे हैं। बस उन्होंने कहा, तुम बाहर निकलो। और अब दुबारा तुम इस तरह की बात पूछना ही मत... तुमको गणित पता ही नहीं है कि गणित क्या चीज है। मैंने कहा कि सीधी-सीधी बात है कि ऐसे नहीं चलता। जिंदगी ऐसे गणित से नहीं चलती। लेकिन बहुत लोग हैं जिनका जीवन में ढंग ही गणित का है । वे बैठे हैं यहां आकर तो भी उनके भीतर गणित चल रहा है कि ऐसा ऐसा करेंगे तो कितनी देर से समाधि आ जायेगी । तो ठीकं, यह मिल गई कुंजी, सम्हाकर रख लो। कुछ तो अपनी नोटबुक भी ले आते हैं। जल्दी से उसमें नोट कर लेते हैं कि कहीं भूल न जायें। तो अब कल जाकर प्रयोग करना है। लेकिन कल... । एक और ढंग भी सुनने का है कि तुम मुझे सुनो सिर्फ इस भांति मत सोचो कि जो मैं कह रहा हूं उसका साधन बनाना है; कि कितनी जल्दी मोक्ष मिल जायेगा। यह तुम सोचो ही मत । तुम सिर्फ मुझे सुन लो मन भरकर । ऐसा सुन लो कि जैसे तुम मोक्ष में बैठे हो । अब कहीं और जाना नहीं है। कहां जाओगे, मोक्ष में बैठे हो। जरा देखो तो चारों तरफ। मोक्ष मौजूद है। और मैं तुम्हें कोई विधियां नहीं बता रहा हूं कहीं जाने की। सिर्फ अपना गीत गा रहा हूं। तुम ऐसे सुनो कि मोक्ष में बैठे हैं और किसी का गीत सुन रहे हैं। तब तुम बड़े चकित हो जाओगे । गणित के हटते ही, यह पाने की दौड़ के हटते ही तुम पाओगे, तृप्ति की वर्षा हो गई। ऐसी वर्षा, जैसी तुमने कभी नहीं जानी थी। रोआं- रोआं पुलकित हो गया। श्वास- श्वास सुवासित हो गई। धड़कन धड़कन नाच उठी। तुम इसी क्षण किसी और लोक में प्रवेश कर गये । जो अभी हो सकता है उसे तुम कभी के लिए क्यों टाल रहे हो ? स्थगित मत करो। मैं तुमसे कहता हूं, तुम मोक्ष में बैठे हो। और तुम्हें जो होना चाहिए, ठीक वैसा इसी क्षण हो सकता है। लेकिन गणित हटाना पड़े। और यह जो तुम अतृप्ति बाहर की भीतर ले आये हो, इसको भी छोड़ देना पड़े। अतृप्ति ही छोड़ दो। यह प्रश्न उठा होगा तुम्हारे मन में कल अष्टावक्र के सूत्र को सुनकर कि 'ज्ञानी संतुष्ट होकर भी संतुष्ट नहीं होता।' लेकिन यह ज्ञानी का लक्षण है, तुम्हारा नहीं । यह तो परम अवस्था की बात है। अष्टावक्र ने इतना ही कहा है कि ज्ञानी संतुष्ट होकर संतुष्ट नहीं होता। सूत्र अधूरा है । अष्टावक्र कहीं मिल जायें, तो उनसे कह दो इसको और पूरा कर दो, कि ज्ञानी असंतुष्ट होकर असंतुष्ट भी नहीं होता । सूत्र अधूरा है। इसमें कई अज्ञानी झंझट में पड़ जायेंगे । असल में ज्ञानी कुछ भी होकर कुछ भी नहीं होता। न संतुष्ट होकर संतुष्ट होता, न असंतुष्ट होकर असंतुष्ट होता । न दुखी होकर दुखी होता, न क्रोधित होकर क्रोधित होता । न हंसते समय हंसता और न रोते समय रोता। क्योंकि ज्ञानी अभिनेता है। क्योंकि ज्ञानी ने कर्ता-भाव छोड़ दिया है। इसलिए अब कुछ होने का उपाय न रहा । अब तो ज्ञानी के माध्यम से जो भी हो, परमात्मा ही होता है। अब तो ज्ञानी केवल अभिनय कर रहा है। अब तो वह कहता है, जो तेरी मर्जी । जैसा नाच नचाये वैसा ही नाच लेंगे। न नचाये तो नहीं नाचेंगे। अब अपनी तरफ से कुछ करता ही नहीं ज्ञानी । 314 अष्टावक्र: महागीता भाग-5
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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