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कूचागर्दों की वहशत तो जागे
मजदों को बगावत तो आये कांप उठें कसरेशाही के गुंबद
राजमहलों की मीनारें कांप जायें। मंदिरों-मस्जिदों की मीनारें कांप जायें । थरथराये जमीं मोबदों की
और मंदिरों की जमीन, मस्जिदों की जमीन थरथराये । कूचागर्दों की वहशत तो जागे
और गलियों में जो आवारा घूम रहे हैं, जीवन की गलियों में जो आवारा भटक रहे हैंकूचागर्दों की वहशत तो जागे
उनकी नींद तो टूटे किसी तरह ।
गमजदों को बगावत तो आये
और ये दुखी लोग किसी तरह विद्रोही बनें। इसलिए आलोचना है; निंदा जरा भी नहीं ।
दूसरा प्रश्न भी पहले से संबंधित है: यदि दो सदगुरु एक-दूसरे की निंदा और आलोचना करें तो शिष्यों को क्या समझना चाहिए?
दि तुम शिष्य हो तो तुम जो तुम्हारे | हृदय से मेल खा जाये उसे चुन लोगे
और चल पड़ोगे। तुम इसकी फिर चिंता ही न करोगे कि किसने आलोचना की। तुम फिर जिस आलोचना की है उसका विरोध भी न करोगे। तुम हो कौन निर्णय करनेवाले ! शिष्य और निर्णय करे कि कौन सदगुरु है, कौन सदगुरु नहीं है ? बात ही मूढ़ता की है।
यह तो अंधा निर्णय करने लगा कि किसको दिखाई पड़ता और किसको नहीं दिखाई पड़ता । अंध कैसे निर्णय करेगा, किसको दिखाई पड़ता है, किसको नहीं दिखाई पड़ता ? अंधे को इतना ही जानना चाहिए कि मुझे दिखाई नहीं पड़ता । अब मुझे जिससे दोस्ती बन गई हो, उसका हाथ पकड़कर चल जाना चाहिए। और अपने अनुभव से देख लेना चाहिए कि इस आदमी के साथ चलने से गड्डों में गिरना तो नहीं होता? इस आदमी के साथ चलने से रास्ते पर टकराहट तो नहीं होती ? इस आदमी के साथ
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अष्टावक्र: महागीता भाग-5